Book Title: Prathamanuyoga Dipika
Author(s): Vijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 8
________________ RAMAMMo n tempoo0000 LIMIL A MMA0000000dnMarnaram काल में मनुष्यादि की अवगाहना, सूख, ऐश्वर्य, वैभव, बुद्धि, पराक्रम, बल-वीर्य, कला-विज्ञान आदि क्रमशः स्वभाव से कम-कम होते जाते हैं। तदनुसार बन. पर्वत, नदी आदि का प्रमाण भी उत्तरोत्तर कम होता जाता है । इसके विपरीत उत्सपिणी काल है जिसका कम इससे विपरीत होता है । १-दुःखमा-दुरखमा, २-दुःखमा, ३-दुःखमा-सुखमा, ४-सुखमादुःखमा, ५-सुखमा और ६-सूखमा-सुस्त्रमा । इनके समय भी पूर्वोक्त प्रकार ही है। इस काल में जीवों का शरोराकार, प्रायु, बल, बुद्धि, पराक्रम, ज्ञानादि गुगा कला-विज्ञान उत्तरोत्तर स्वभाव से वृद्धिगत होते रहते हैं। नदी का वेग, पवन की गति किसी प्रकार रोकी जा सकती है परन्तु समय (काल) की चाल में पुरुषार्थ को हार मानकर ही बैठना पड़ता है । यह एक नैसगिक-प्राकृतिक प्रक्रिया है प्रयत्न साध्य नहीं। वर्तमान युग अवसर्पिणी चल रहा है। इसके प्रारम्भ (प्रथम काल ) में जीवनोपार्जनका साधन दश प्रकार के कल्पवृक्ष थे। १. गहांग (घर देने वाला), २. भोजनांग (भोजन दाता), ३. भाजनाङ्ग (पात्र दाता), ४. पानांग (मधुर रस दाता), ५. वस्त्रांग, ६. भुषणांम, ७. माल्यांग, ४. दीपांग, ६. ज्योतिरांग और १०. तुवाँग (नाना प्रकार के वादिन प्रदान करने वाले) सर्व यूगलियाँ इन्हीं से जीवन चलाते थे । उत्तम भोगभूमि के समान सम्पूर्ण रचना थी । दुसरे सुखमा काल में मध्यम भोगभूमि और तीसरे सुखमा-दुःखमा काल में जघन्य भोगभूमि के समान व्यवस्था रही । इन कालों में युगलियाँ (स्त्री-पुरुष ) एक साथ उत्पन्न होते और एक साथ ही संतान उत्पन्न कार छींक और जंभाई लेकर मरण को प्राप्त हो जाते। उस समय समाज, परिवार, राज्य प्रादि का संगठन नहीं था। सभी जीव कल्प वृक्षों से आवश्यक पदार्थ लेकर अपना जीवन-यापन करते थे। कुलकरों की उत्पति तृतीय काल में पल्य का पाठवा भाग शेष रहने पर कल्पवृक्षों की गति क्षीण हो गई । ज्योतिरङ्ग जाति के कल्पवृक्षों का प्रकाश मन्द होने से प्राषाढ सुदी पुणिमा के दिन सायंकाल पूर्व दिशा में सर्व प्रथम चन्द्र दर्शन हुमा और इसी समय पश्चिम दिशा में प्रस्ताचल की ओर जाता हुआ सूर्य दिखाई दिया । एकाएक अचानक इनका अवलोकन कर

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