Book Title: Prakrit Vidya 2000 04 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 7
________________ गृद्धपिच्छ-भाषितप्रकृष्ट-मंगलार्थिकाम् । सिद्धि-सौख्य-साधिनीं समन्तभद्र-भारतीम् ।। 4।। अर्थ:- गृद्धपिच्छ आचार्य उमास्वामी द्वारा प्रकृष्ट मंगलार्थ को कहनेवाली भाष्यकार (समन्तभद्र) मुनीश्वर द्वारा परिपोषित एवं अलंकृत, आचार्य पात्रकेसरी के प्रभाव को सिद्धि करनेवाली, सिद्धि-सौख्य के साधन-स्वरूप उस समन्तभद्र-भारती की स्तुति करता हूँ। इन्द्रभूति-भाषित-प्रमेयजाल-गोचराम् । वर्द्धमानदेवबोध-बुद्ध-चिद्विलासिनीम् ।। यौग-सौगतादि-गर्व-पर्वताशनिं स्तुवे । क्षीरवार्धि-सन्निभां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 5।। अर्थ:- भगवान् वर्द्धमान के प्रत्यक्ष/केवलज्ञान को बतानेवाली, इन्द्रभूति द्वारा कहे प्रमेयजाल के गोचर व योग, सौगतादि के गर्वरूपी पर्वतों को चूर करने में व्रज के समान, मन को आनन्दित करनेवाली, क्षीरसमुद्र के समान समन्तभद्र-भारती की स्तुति करता हूँ। माननीति वाक्यसिद्धि-वस्तु-धर्म-गोचराम्। मानित-प्रभाव-सिद्ध-शुद्ध-सिद्धि-साधिनीम् ।। घोर-भूरि-दुःख-वार्धि-पारण-क्षमामिमाम् । चारु-चेतसा स्तुवे समन्तभद्र-भारतीम् ।। 6।। अर्थ:- प्रमाण व नीति-वाक्यों से सिद्ध वस्तुधर्म के गोचर/आश्रय व प्रमाणित प्रभाव से सिद्ध, शुद्ध (निर्विकार) सिद्धि को साधनेवाली, बहु घोर दुःख से पार कराने की सामर्थ्य से युक्त इस समन्तभद्र-भारती की सुन्दर मन से स्तुति करता हूँ। सांत-साधनाद्यनन्त-मध्ययुक्त-मध्यमाम् । शून्यभाव-सर्ववेदि-तत्त्ववेदि-साधिनीम् ।। हेतु-हेतुवाद-सिद्ध-मेय-जाल-भासुराम् । मोक्षसिद्धये स्तुवे समन्तभद्र-भारतीम् ।। 7।। अर्थ:- सादि-सान्त, अनादि-अनन्त एवं मध्ययुक्त, मध्यवर्ती को शून्यभाव सर्वविदित तत्त्ववेदि को साधनेवाली, हेतु एवं हेतुवादसिद्धि, प्रमेयजाल प्रकाशित करनेवाली समन्तभद्र-भारती की मोक्षसिद्धि के लिए स्तुति करता हूँ। व्यापकाद्वयाप्त-मार्गतत्त्व-युग्म-गोचराम् । पापहारि-वाग्विलास-भूषणां शुकांस्तुवे ।। श्रीकरिं च धीकरिं च सर्वसौख्य-दायिनीम् । नागराज-पूजितां समन्तभद्र-भारतीम् ।। 8।। अर्थ:- द्वय (इहलोक, परलोक) में विस्तार को प्राप्त मार्ग-तत्त्व के युग्म के गोचर, पाप हरने वाली, वाग्विलास को शुक (तोता) की आवाज के समान भूषण करनेवाली, उभय लक्ष्मी एवं बुद्धि को बढ़ाने वाली नागराज से पूजित उस समन्तभद्र-भारती की स्तुति करता हूँ। ** प्राकृतविद्या अप्रैल-जून '2000 405Page Navigation
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