Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 136
________________ ११४ प्रज्ञा की परिक्रमा कमी अथवा उपस्थिति से शरीर में रासायनिक परिवर्तन होता है। रासायनिक परिवर्तन आन्तरिक भाव, मन और इन्द्रियों को उत्तेजित करता है, जिससे शरीर असत् की ओर गतिशील बनने लगता है। वह इतना अधिक प्रभावी हो जाता है कि उसकी पकड़ से मुक्त होना उनके वश की बात नहीं रहती । व्यसनी स्वयं को दोषी और अपराधी महसूस करने लगता है अथवा समाज के प्रति विद्रोह की भावना से भर जाता है। उसकी अपनी अवधारणा बन जाती है। वह परिवार व समाज की अवहेलना कर मनमाने ढंग से जीने का प्रयत्न करता है । प्रेक्षा- ध्यान शिविरों में आने वाले व्यक्तियों में कुछ व्यसन से ग्रस्त भी होते थे। उनकी कठिनाई को देखते हुए व्यसन- - मुक्ति के प्रयोगों की खोज का क्रम चला। व्यसन-मुक्ति केवल उपदेश देने, डांटने और डराने से नहीं हो सकती है। उसके लिए सही समझ पैदा करना और उसके अन्तश्चित पर जमी आकर्षण की धारणा को संकल्प द्वारा परिवर्तित करने से ही व्यसन मुक्त बना जा सकता है। अनेक व्यक्तियों पर सफल प्रयोग से यह सिद्ध हो चुका है कि जो व्यक्ति व्यसन मुक्ति का इच्छुक है, उसे प्रेक्षा-ध्यान शिविर के अभ्यास के दौरान संकल्प योग का विशेष प्रयोग करवा कर निर्व्यसनी बनाया जा सकता है। बालोतरा में ३४ वें प्रेक्षा- ध्यान शिविर में एक व्यक्ति जो विभिन्न व्यसनों से ग्रस्त था, व्यसन मुक्ति की आकांक्षा से शिविर में शामिल हुआ । उसने प्रेक्षा- ध्यान प्रयोगों के साथ तीन दिन संकल्प योग का अभ्यास किया। यह एक सुखद आश्चर्य है कि वह बिना किसी कष्ट के व्यसन मुक्त हो गया। जब वह किसी कार्यवश बाजार गया तो मित्र मण्डली ने उसे चाय व सिगरेट दी । चाय को देखते ही उसे उल्टी होने लगी। उसने मित्रों से कहा- आप जिन्द न करें। मैंने तीन दिनों से व्यसन मुक्ति का एक प्रयोग किया है। मुझे इच्छा नहीं हो रही है कि मैं चाय, सिगरेट, शराब या अन्य कोई नशा करूं । प्रातः नाश्ते के लिए सभी के साथ वह भी बैठा था। नाश्ते में काली द्राक्षा दी गई। द्राक्षा का पानी भी गिलास में था । द्राक्षा के काले पानी को देखकर उसे शराब का भ्रम हो गया । होठों के नजदीक लाते ही उबकाई आने लगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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