Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 178
________________ १५६ प्रज्ञा की परिक्रमा खाते मंगवाये । घर वाले इस प्रकार की बात सुनकर चौंके कि हो न हो इन पर किसी दूसरी हवा का असर हो गया है। मुझे गालियां देते हुए और यह कहते हुए बाहर निकाल दिया कि इसने ही सब कुछ किया है। घर वाले बनारसीदास जी को सिरफिरा समझने लगे, किन्तु जब श्री दास ने स्पष्ट बताया कि मैं बिल्कुल चंगा हो गया हूं। तुम लोगों ने उस बहन का अनादर करके बड़ी गलती की है, उसे वापस बुलाओ। मुझे वापस बुलाया गया और भूल के लिए क्षमा मांगने लगे। सड़ी रीढ़ की हड्डी ठीक हो गई बनारसी दास की बुआ मोडमपी में थी। उसकी रीढ़ की हड्डी सड़ गयी थी। स्पंज के मोटे गद्दों पर रात-दिन लेटी ही रहती थी। डॉक्टर ने प्लास्टर आदि लगाकर बहुत इलाज किया पर ठीक नहीं हुआ। वह निराश हो गई। अपनी जिन्दगी के दिन काट रही थी। बनारसीदास ने मुझसे कहा-तुम्हें उसे भी ठीक करना होगा। मैंने कहा-ठीक होना न होना मेरे हाथ की बात तो है नहीं। मैं कोशिश करूंगी। यदि ठीक हो गयी तो उसका नसीब । उसको लाने के लिए जीप लेकर उसके घर पहुंचे तो घरवालों ने इंकार करते हुए कहा-यह तो मरणासन है, इसे लेजाकर क्या करोगे? किसी प्रकार जीप में लेटाकर उसे मेरे पास लाये । वस्त्र आदि बदलने के पश्चात् मैंने तपस्या सहित जप प्रारम्भ किया तो आवाज आई कि यह २१वें दिन अपने आप उठकर चली जायेगी। औषध का सेवन आवाज के अनुसार किया। इक्कीसवें दिन एकदम तन्दुरुस्त होकर वह अपने आप उठकर चली गई। दुर्घटना से बचाव __ गिरधारीलाल (पुत्र) पोरबंदर गाड़ी में जा रहा था। जामनगर के निकट गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई। उस समय मेरे पन्द्रह दिन की तपस्या थी। मैं ध्यान में थी। मेरी आंखों के समक्ष सारा दृश्य आ गया। मैंने सही घटना गिरधारी के पिताजी से कही-वे चिंतित हुए। साथ ही मैंने उनसे कहा कि उसको कोई नुकसान नहीं हुआ। उसका तार भी कल आ जायेगा। वैसा ही हुआ। ऐसे ही एक दूसरी घटना (ट्रेन-दुर्घटना) होते-होते बची। उसका उल्लेख भी उसी समय घर पर कर दिया। प्रथम दुर्घटना की सच्चाई उसके पुत्र गिरधारीलाल ने बतायी। साथ ही उसने बताया कि जब हम किसी यात्रा पर जाते हैं तब माता जी के हाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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