Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 184
________________ १६२ प्रज्ञा की परिक्रमा प्रगट होने लगती हैं। लब्धियों के आकर्षण में साधक बहकर साधना से भ्रष्ट हो सकता है। विभूति और लब्धियां मार्ग में अवश्य आएंगी, किन्तु साधक उसमें अनुरंजित न हो अन्यथा पुनः संसार का परिभ्रमण निश्चित है। साधना का चौथा सूत्र बनता है-संतोष । हर परिस्थिति में साधक संतुष्ट रहे। चाहे जैसी परिस्थिति हो, साधक उसमें धैर्य के साथ संतुष्ट रहने से साधना में आगे से आगे बढ़ता रहता है। असंतोष साधना का ऐसा बाधक तत्त्व है जिससे साधक न घर का रहता है न घाट का। सिद्धि में बाधक तत्त्व असंतोष का निरसन नहीं होता तब तक यथार्थ का बोध नहीं हो सकता। कामना, इच्छा, ही व्यक्ति को भ्रष्ट करती हैं। कामना से विमूढ़ बना, कहीं-कहीं क्षुद्रताओं में प्रवृत्त बना, अपने जीवन को स्वाहा कर देता हैं। इन सबसे निवृत्ति प्रदान करने वाला तत्त्व यथार्थ बोध है। यथार्थ बोध ही साधक को साधना में स्थिर, गतिशील और अन्तिम ध्येय तक पहुंचाता है। पीछे वर्णित साधना को गतिशील बनाने वाले तत्त्व उत्साह, निश्चय, धैर्य, संतोष, तत्त्वदर्शन पांचों की उपलब्धि से व्यक्ति साधना की महायात्रा में प्रतिक्षण आगे से आगे बढ़ता जाता है। इन पांचों तत्त्वों की प्राप्ति के पश्चात भी जब तक रागात्मक जनसंपर्क का परित्याग नहीं करता है, सिद्धि वैसे ही हट जाती है, जैसे हवा चलने से बादल दूर चले जाते हैं। जनसंपर्क से वाचालता, वाचालता से स्पन्दन, मन और चित्त में भ्रान्ति उत्पन्न होती हैं। भ्रान्ति ही सर्वनाश का मूल है। साधना की अभिरुचि वाले साधक को जनसंपर्क कम से कम करना चाहिए। उससे मौन, मनन, निदिध्यासन और यथार्थ का साक्षात्कार किया जा सकता है। मनीषियों ने अपने प्रबुद्ध चिंतन को इस प्रकार लिपिबद्ध किया है। जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो, मनश्चित्तविभ्रमाः, भवानी तस्मात् संसर्गे, जनै योगी ततस्त्यजेत्। ०००० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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