Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 182
________________ १६० प्रज्ञा की परिक्रमा तक स्थिर नहीं रह सकती इसलिए अनुप्रेक्षा आदि का अभ्यास किया जाता साधना को सिद्धि की यात्रा तक पहुंचने के लिए जिन-जिन सूत्रों का आलम्बन लिया जाता है उसमें सबसे पहला सूत्र है-उत्साह। किसी भी कार्य की सिद्धि प्रबल पुरुषार्थ के बिना नहीं रह सकती। पुरुषार्थ की सफलता तब ही हो सकती है जब वह उत्साह-पूर्वक किया जाता है। कार्य की सिद्धि में उत्साह का महत्वपूर्ण स्थान है। साधना अथवा मोक्षाभिलाषा अन्तरंग स्थिति है। उसमें अन्य कोई आकर्षण काम नहीं देता। वहां व्यक्ति स्वयं अपने निर्मल पुरुषार्थ से कार्य करता है। तब ही उसे अभिप्सित सिद्धि उपलब्ध होती है। __ पुरुषार्थ की सफलता तब ही पूर्ण होती है, जब ध्येय का निर्णय स्पष्ट हो। ध्येय के बिना किया गया पुरुषार्थ किस दिशा की ओर प्रवृत्त हो जाए कहा नहीं जा सकता। इसलिए ध्येय का निश्चित करना साधक का प्रथम कर्तव्य है। एक प्रश्न हो सकता है कि ध्येय से पहले उत्साह (पुरुषार्थ) को कैसे स्थान दिया गया। ध्येय भी पुरुषार्थ से उपलब्ध नहीं होता है। ध्येय को जब तक सर्वात्मना प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक धैर्य रखना आवश्यक है। बहुत बार ऐसा होता है, सफलता की चरम स्थिति तक पहुंचने की स्थिति प्राप्त होने की होती है साधक का धैर्य टूट जाता है। सब कुछ किए का परिणाम निष्फल चला जाता है। साधना में असीम धैर्य की आवश्यकता होती है। एक पौराणिक आख्यान है वह कितना सच है या नहीं किन्तु उसमें निरूपित तथ्य यथार्थ हैं। नारद विश्व-भ्रमण पर थे। मार्ग में उसे एक साधक मिला, जिसको साधना करते हजारों वर्ष हो गए। शरीर उसका जीर्ण-शीर्ण हो गया। हड्डियां पंसलियां दिखाई दे रही थीं। उठते-बैठते उनमें सूखे वृक्ष की तरह आवाज होती थी। नारद को सम्मुख देख अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपनी मुक्ति के संबंध में पूछने लगा। नारद ने अपने यौगिक ज्ञान से उसको बताया कि अभी तो मुक्ति बहुत दूर है। 'मुझे हजारों वर्ष हो गए क्या अब भी मुक्ति दूर है ?' 'हां-हां अब भी मुक्ति दूर है, बहुत दूर...........!' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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