Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 183
________________ मुक्ति के सूत्र १६१ योगी निराश, निरस्त मन ही मन चिन्तन करने लगा क्या मैं मुक्त होऊंगा ही नहीं ? 'ऋषिराज कहीं तो सीमा होगी? कुछ तो बताएं।' दयार्द्र आंखें अपलक नारद की आंखों में झांकने लगीं। नारद ऋषि गंभीर होकर बोले, इस विराट बरगद पेड़ के पत्तों जितने दिन आपकी मुक्ति के अवशेष हैं। बरगद के पत्तों जितने दिन...........बाप रे बाप. ..हजारों पत्ते इतने वर्ष कब पूरे होंगे मैं तो थक चुका इस साधना से, मुझ-से अब कुछ नहीं होगा। साधना के उपक्रम का परित्याग कर, संसार-पदार्थ-सुख की ओर प्रवृत्त हो गया। नारद ऋषि आगे चले । विभिन्न क्षेत्रों का परिभ्रमण करते हुए ऐसे स्थान पर पहुंचे। वहां भी एक नवयुवक सन्यासी साधनारत था। उसने नारद ऋषि को देखते ही प्रमाण किया। और अपनी साधना की सिद्धि के संबंध में प्रश्न किया। नारद मुस्कारए 'सिद्धि...अभी तो तुमने साधना प्रारम्भ की है।' 'हां हां साधना का प्रारम्भ ही तो सिद्धि का द्वार है। आखिर मुक्ति तो कभी होगी ही ! आप तो भविष्य द्रष्टा हैं। करुणा कर बताएं मेरी मुक्ति कब होगी?' 'मुक्ति में बहुत देरी है, बड़ के पेड़ पर जितने पत्ते हैं इतने वर्ष लगेंगे।' साधक आनन्द विभोर हो उठा। बस! तब तो क्या ? इस अनन्त में तो ये वर्ष एक बिन्दु ही नहीं हैं। भावों का ऐसा प्रवाह उमड़ा, उसके सघन बन्धन शिथिल बने। नारद के देखते-देखते वह सदा सर्वदा के लिए विमुक्त बन गया। पहला साधक सिद्धि के निकट पहुंच गया था। थोड़े वर्ष और साधना करता तो उसे सिद्धि मिल जाती, लेकिन निरुत्साह ने उसे अनन्त के गर्त में डाल दिया। दूसरा साधक स्वल्प समय से ही साधना कर रहा था। उसे भी नारद ने वैसा ही उत्तर दिया, लेकिन उसके उत्साह, भावना और संकल्प से साधना शीघ्र ही सिद्धि में परिणत हो गई। साधना की सिद्धि में ध्येय का निश्चय और उत्साह आवश्यक है, तो असीम धैर्य की अपेक्षा उससे भी अधिक है। . साधना के मार्ग में निःशंक अनासक्त रह कर ही पूर्णता को उपलब्ध हो सकते हैं। साधना से ज्यों-ज्यों निर्मलता बढ़ती है, साथ ही लब्धियां (विभूतियां) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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