Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 176
________________ १५४ प्रज्ञा की परिक्रमा प्रश्न -"आप तपस्या के प्रति कैसे आकृष्ट हुई ? आपने क्या-क्या विशिष्ट तपस्याएं की हैं ?" उत्तर-सत्संग से मुझे लगा कि अपने संचित कर्मों को काटने के लिए तपस्या आवश्यक है। प्रथम चातुर्मास में ही मैंने एकान्तर (एक दिन उपवास एक दिन भोजन) दो महीनों तक किया, दो दिन और तीन-तीन दिन का उपवास भी किया। मुझे तपस्या से शक्ति व शान्ति का अनुभव होता। दूसरे और तीसरे चातुर्मास में भी मैंने तपस्या और साधना प्रारम्भ की। पिताजी की आकस्मिक मृत्यु ने मुझे झकझोर दिया और मेरे मन में विरक्ति और विराग भी हुआ। संसार के कार्यों से मुझे विरक्ति हो गई। रह-रह कर मन में आता कि जिस पिता ने मुझे पाला-पोसा उसका भी अंतिम-दर्शन नहीं कर सकी। वे चले गये तो अब इस जीवन का क्या विश्वास ? क्यों न मैं अपने जीवन को साधना में लगाऊं। मैंने तीन दिन की तपस्या चौविहार नवकार मंत्र के विशेष अनुष्ठान के रूप में की। उसके साथ-साथ मैं अपने कर्म क्षय के लिए एकान्तर, कर्मचूर, पन्द्रह वर्षी तप, पन्द्रह दिन की तपस्या की लड़ी, पांच एवं आठ दिन के उपवास आदि नाना प्रकार की तपस्या करती रही। प्रश्न -"तुम्हारी ध्यान में अभिरुचि कैसे हुई ?' । उत्तर - "मैं ध्यान के संबंध में अधिक कुछ नहीं जानती थीं। ज्यों-ज्यों जप और तपस्या करती मुझे दिव्य आवाज होती। उसके अनुसार मैं अपनी साधना करती चलती। एक बार मेरे मन में आया कि मुझे धूप में जप करना चाहिए। मैंने वैसे ही किया। शरीर में रोगों का उपद्रव होने लगा। एक दिन मैं जप कर रही थी कि दिव्य आवाज आई-'शरीर को धूप से सुखाने से क्या होगा।" मन को सुखाओं शरीर के साथ इस प्रकार की जबरदस्ती से क्या होगा फिर मैंने धूप में जप करना छोड़ दिया। तप से मेरा मन ध्यान की ओर आकृष्ट हुआ। पहले थोड़ा ध्यान करती थी अब ध्यान पर विशेष अभिरूचि हो गयी। ३१ दिन की तपस्या में रात्रि को ६-७ घण्टे खड़े-खड़े ध्यान करने लगी। ध्यान में नवकार मंत्र के दो पद तथा पांचों पदों का निरन्तर स्मृतिमय जप करती। उस समय अनेक चमत्कार भी हुए। कुछ-कुछ दिव्य आवाज भी आती, मुझे कहती-"तुम्हें जो चाहिए वह ले लो। इसके साथ ही प्रतिदिन गुरुजी के दर्शन भी मुझे साक्षात् होते। प्रातः चार बजे से पांच बजे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186