Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 177
________________ जप, तप और ध्यान के चमत्कार १५५ के बीच एक भव्य मुनि के दर्शन होते। वे मुझे संस्कृत में कुछ बताते। मैं उसे पूरी तरह समझ नहीं पाती। इसलिए सरल शब्दों में मुझे बताते। कई गीतिकाओं का शुद्ध उच्चारण करना भी सिखलाते । मैं अनपढ़ और अक्षर बोघ से अनभिज्ञ थी। इसके साथ-साथ देवताओं के विमान भी मुझे दिखायी दे जाते। वे देवता लोग मुझे कहते.....तुम्हें क्या चाहिए ? धन, मकान या और कुछ ? परन्तु मैं अपनी आत्मा के कल्याण की कामना के अतिरिक्त कुछ नहीं कहती। प्रश्न - ध्यान और तपस्या से क्या कुछ और भी घटित हुआ ? उत्तर - आंखों में रोशनी लौटी। अकस्मात् मेरी आंखों की रोशनी चली गई। बड़े-बड़े डॉक्टरों से जांच कराई सभी कहते हैं कि हमें इसकी आंखों में रोशनी लगती है, किन्तु दिखायी क्यों नहीं देता, इसका कारण भगवान ही जाने। घर वाले हैरान हो गय । आठ महीने परिवार वालों ने सेवा तो की परन्तु आंखों की रोशनी जाने से सब चिन्तित थे। मैंने अंत में गुरुदेव की शरण ली। चौविहार अठाई की तपस्या की। जप और ध्यान के लिए आसन जमाकर बैठ गई। मन में संकल्प ले लिया कि आंखों की रोशनी लौटने पर ही उलूंगी। तीसरे दिन अकस्मात् एक झटका सा लगा। रोशनी लौट आई। सब लोग आश्चर्य चकित थे पर मेरा मन तो यही कह रहा था कि गुरुदेव की अगाध श्रद्धा, जप एवं तपस्या का ही यह परिणाम है। जप से बुखार गायब गीदड़बाहा के बनारसीदास अग्रवाल लम्बे समय से बीमार थे। वे हमारे संबंधी थे। मेरे पतिदेव ने मुझे कहा-"तुम्हारे देवता बहुत कुछ करने को कहते हैं, क्यों नहीं उन्हीं से इनकी बीमारी ठीक करा लो। मैंने कहा यह कैसे हो सकता है ? फिर भी आपकी आज्ञा का अनादर मैं नहीं कर सकती। मुझे वहां ले जाया गया। उनके पास बैठकर मैंने महामंत्र का पाठ प्रारम्भ किया। उस समय उन्हें १०५ डिग्री बुखार था। एक महीने से उनकी स्थिति दयनीय थी। बीमारी ठीक होने की आशा निराशा में बदलती जा रही थी। मैंने लगातार तीन घण्टे तक महामंत्र का पाठ किया मैं पाठ कर रही थी कि बनारसीदास को रोशनी नजर आई फिर मानो वे किसी व्यक्ति से बात कर रहे हों। वैसे वे आकाश से बातें करने लगे। जवाब-सवाल में उसने बतलाया कि तुम अब ठीक हो, तुम्हारे कोई रोग नहीं है। वे तत्काल बैठ गये। उन्होंने अपने बही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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