Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 151
________________ १४ स्वतन्त्रता के बदलते मूल्य स्वतंत्र ‘स्व शासन' कितना प्यारा शब्द ! कुछ शब्द ऐसे प्रिय होते हैं, उनकी व्याख्या नहीं की जा सकती। जब वे अस्तित्व की अभिव्यक्ति पाते हैं, तब चैतन्य में एक नव स्पंदन स्फुरित होने लगता है। क्या स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है ? अथवा किसी व्यक्ति, जाति या राष्ट्र का ही यह अधिकार है ? प्रश्न सीधा और सपाट है, क्या एक व्यक्ति और जाति को ही स्वतंत्र जीवन जीने का अधिकार है ? जो राष्ट्र स्वतंत्रता का जीवन जी रहे हैं। उनके नीचे अनेकों राष्ट्र जाति और व्यक्ति परतंत्रता का जीवन अत्यन्त निम्न अवस्था से जी रहे हैं। क्या यह स्वतंत्रता में विश्वास की विडम्बना नहीं है ? क्या स्वतंत्रता का अर्थ मात्र राज्य सत्ता का परिवर्तन है ? तब उस विराट उद्देश्य की पूर्ति कैसे हो पाएगी? स्वतंत्रता 'वैयक्तिक सच्चाई है जिसे प्राप्त हुए बिना व्यक्ति पूर्णता को उपलब्ध नहीं हो सकता। स्वतंत्रता और राज्य सत्ता स्वतंत्रता का सीधा संबंध राज्य सत्ता से नहीं है, राज्य सत्ता कब किस पार्टी अथवा व्यक्ति को उपलब्ध हो जाती है। जिस व्यक्ति अथवा पार्टी को उपलब्ध होती है तब क्या दूसरी पार्टी वाले की सत्ता आते ही स्वतंत्रता में परिवर्तन आ जाता है ? स्वतंत्रता के अनेक पहलू हैं। वैयक्तिक स्वतंत्रता व्यक्ति का मूलधन है। किसी भी सत्ता, शासन अथवा तंत्र का यह अधिकार नहीं कि वह मूल के अधिकार में हस्तक्षेप करें। राज्य सत्ता के अपने अधिकार होते हैं, जिससे वह समाज और राष्ट्र की सीमित सुरक्षा करती है। आज सामहिक व्यवस्था इतनी महत्त्वशील हो गई है। जिससे राज्य सत्ता को इतना सामर्थ्य उपलब्ध हो गया है कि उसके सामने वैयक्तिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं रह गया। राज्य स्तर पर अधिकार करने वाला आखिर व्यक्ति ही तो हैं। व्यक्ति स्वयं अपनी स्वतंत्रता का हनन करें, सत्ता मुख्य मानने लग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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