Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 163
________________ संस्कार प्रवृत्ति या संस्कार मुक्ति १४१ आखिर इतने आतुर क्यों हैं, संस्कार को देने के लिए ? क्या दिए जाने वाले संस्कार व्यक्ति ओर समाज का निर्माण करने वाले हैं ? दिए जाने वाले संस्कार महत्त्वपूर्ण हैं अथवा महत्त्वहीन । उसका अनुचिन्तन किए बिना ही जो स्वयं में परिवार, समाज से सीखा उसे वह आने वाली पीढ़ी को देने आतुर हो जाता है। उसके विरुद्ध कहीं यदि कोई प्रतिक्रिया होती है, प्रतिरोध और प्रतिकार होता है, संस्कारक विक्षुब्ध हो जाते हैं। क्या संस्कार ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व नहीं ? क्या वह मिट्टी का लोंदा है ? शुष्क जड़ काष्ठ है ? वह चिन्मय, चेतनाशील प्राणी है उसे अपना निर्माण करने का, अनुचिन्तन करने का अधिकार है। वह अपनी प्रज्ञा से ग्राह्य अग्राह्य का निर्णय कर सकता है, उसे श्रेय और अश्रेय का मानदण्ड निश्चित कर संस्कारों को स्वीकृत - अस्वीकृत करने का अधिकार है । श्रेष्ठता अश्रेष्ठता का निर्णय संस्कारों की श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता के निर्णय का कोई आधार हो सकता है तो वह यह है कि संस्कार स्वतन्त्रता को उपलब्ध कराता है या बन्धन को ? राग-द्वेष बढ़ाता है या अनाशक्ति । स्वतन्त्रता और अनाशक्ति को बढ़ाने वाले संस्कार सात्विक हैं, आचरणीय हैं, आदरणीय हैं। संस्कार के आचरणीय और आदरणीयता की विभिन्न भूमिकाएं होती हैं। आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर करने वाले संस्कारों की कसौटी राग-द्वेष से मुक्तता है। राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक जीवन को परिष्कृत करने के लिए जो विचार व्यवहार का प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे परिवार समाज और राष्ट्र का उन्नयन होता है। उसके मानदण्ड में मुख्यतया परिवार, समाज एवं राष्ट्र के हित चिन्तन की मुख्यता होती है। किसी ऐसे एक संस्कार की निर्णीति नहीं की जा सकती जिससे व्यक्ति सामज और राष्ट्र का उन्नयन निश्चित होता हो । उसके लिए व्यक्ति को अपने विवेक को ही जागृत करना होता है । जागृत विवेक ही स्वयं तथा समाज एवं राष्ट्र के हित चिन्तन को ध्यान में रखकर अपने संस्कारों का प्रणयन करता है। संस्कार - निर्माण और शोषण संस्कार - निर्माण के नाम पर जब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के शोषण का दौर चलने लग जाता है तब गंभीर स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कुछ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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