Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 162
________________ १४० प्रज्ञा की परिक्रमा कहा जाए, किसे असंस्कार कहा जाए ? संस्कार की मूल्यवत्ता सर्वदा, सर्व क्षेत्र अथवा सर्व परिस्थिति में एक जैसी नहीं होती। जो संस्कार देश, काल, परिस्थितियों के कारण सर्वथा उपयोगी नहीं रहे, उन्हें आज उसी रूप से ढोते जाना कैसे संस्कार कहलाएगा। संस्कार सम्यक् आचरण का निर्णय वर्तमान कालिक होता है। संस्कारों का बदलता रूप संस्कार के सैकड़ों प्रकार हैं, उनकी सैंकड़ों रस्में, रिवाज, तरीके हैं। देश, काल और परिस्थितियों के कारण उनको बदला न जाए तो आज वे हास्य के निमित्त बनते हैं फिर बुजुर्ग पीढ़ी क्यों चाहती है कि वे वैसे ही चलें? उनके प्रति उठाई गई आवाज को उद्दण्डता, विद्रोह आदि उपमाओं से उपमित कर सामाजिक तिरस्कार तक की स्थितियां पैदा की जाती हैं। जन्म, विवाह, मृत्यु के ही केवल संस्कार नहीं होते, संस्कार जीवन में प्रतिक्षण काम आने वाली स्थिति है। जन्म, मृत्यु और विवाह पर होने वाली रिवाजों में बहुत कुछ परिवर्तन आया है किन्तु धनाढ्य वर्ग के अपने प्रदर्शन की मूल मनोवृत्ति में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा है। मध्यम वर्ग को उनका अनुकरण करना होता है। अनुकरण की यह प्रवृत्ति अन्त तक सामान्य जन तक को सताती है। जन्म, विवाह, मृत्यु के समय होने वाले क्रिया-कलाप, संस्कार, सामाजिक जीवन का अंग बन चुके हैं। अब भी पढ़े-लिखे, अनपढ़, चिन्तक अथवा अचिन्तक सभी को परिवार की बुढ़िया की अनुज्ञा का अनुपालन करना होता है। पंडित, पुरोहितों, पंचों और लोकलाजो का दवाब भी बनी बनाई लकीरों से मुक्त नहीं होने देता। संस्कार ग्रहण की स्वतंत्रता क्या ऐसे संस्कारों की आवश्यकता है ? जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का हनन होता है, व्यक्ति को चाहे, अनचाहे क्षमता, अक्षमता, योग्यता, अयोग्यता का ख्याल किए बिना उसे करणीय, अकरणीय सब कुछ करना होता है। क्या ऐसे संस्कार, सस्कार है ? संस्कारों से पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय चेतना जगती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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