Book Title: Pragna ki Parikrama
Author(s): Kishanlalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 144
________________ १२ अभिनव सामायिक अनुष्ठान सामायिक जैन साधना की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। जैन दर्शन का संपूर्ण सार एक शब्द में अभिव्यक्त किया जाए तो वह सामायिक (समता) ही हो सकता है। समता साधना का आधार है। समता साधना काल में साधन पूर्णता साध्य है । प्रेक्षा समता की आराधना का मार्ग है। सामायिक जैन उपासक के लिए अनिवार्य उपक्रम है। श्रावक के बारह व्रतों में नवां व्रत सामायिक की आराधना का है। बारह व्रतधारी श्रावक को प्रतिदिन सामायिक करना अनिवार्य है। पांच अणुव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, इच्छा-परिमाण (अपरिग्रह) शिक्षाव्रत - दिग्व्रत, भोगोपभोगव्रत, अनर्थदण्ड - व्रत, सामायिक - व्रत, देशावकाशिक, पौषधोपवास, यथासंविभाग- व्रत। इस प्रकार बारह व्रत की परिकल्पना भगवान् महावीर ने की थी । भगवान् महावीर के समय इन व्रतों का अनुपालन करने वाले लाखों श्रावक थे। उसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर पड़ा । अणुव्रत के माध्यम से भगवान् महावीर ने श्रावक के चरित्र को प्रभावी और आचारनिष्ठ बनाया। विचारों में अनेकान्त और आचरण में समता की सरिता प्रवाहमान की । जैन श्रावक जितना सहिष्णु, समतानिष्ठ और सहनशील होता है । यह अपने आप में एक आदर्श है। समता का व्यवहार में अवतरण श्रावक की अध्यात्म-निष्ठा ने ही उसे धर्म के तत्त्व को गहराई से पहचानने और उसे जीवन व्यवहार में जीने की प्रेरणा प्रदान की । आनंद आदि श्रावकों के जीवन व्रत इस बात के साक्षी हैं कि संपन्नता के शिखर पर पहुंचकर संयम और श्रम में कैसे निरत रहा जा सकता है। व्यक्तिगत उपभोग नाम मात्र का था । करोड़ों का वैभव होते हुए भी अपने लिए कुछ एक वस्त्र एवं सीमित भोजन की व्यवस्था कर संपूर्ण सम्पत्ति का सम विभाग कृषि, परिवार, चिकित्सा एवं लोक कल्याण में कर इच्छा - परिणाम व्रत को पुष्ट किया । किसी भी आदर्श को व्यवहार तक लाने के लिए उसे प्रायोगिक रूप देना ही होता है। भगवान् महावीर ने समता के आदर्श को जीवन-व्यवहार में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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