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भक्तामर स्तोत्र : २३
अन्वयार्थ ( नाथ ! ) हे स्वामिन्! ( मन्ये ) मैं मानता हूँ कि ( दृष्टाः ) देखे गये ( हरिहरादयः एव ) विष्णु, महादेव आदि देव ही ( वरम्) अच्छे हैं, (येषु दृष्टेषु सत्सु ) जिनके देखे जाने पर (हृदयम् ) मन ( त्वयि ) आपके विषय में (तोषम् ) संतोष को (एति) प्राप्त हो जाता हैं, ( वीक्षितेन ) देखे गये ( भवता ) आपसे ( किम् ) क्या लाभ है ? ( येन ) जिसके कि ( भुवि ) पृथिवी पर ( अन्य: कश्चित् ) कोई दूसरा देव ( भवान्तरे अपि ) जन्मान्तर में भी ( मन ) चित्त को ( न हरति ) नहीं हर पाता ।
भावार्थ - इस श्लोक में व्याजोक्ति अलंकार से विपरीत कथन किया गया है। श्लोक का अविरुद्ध अर्थ यह है कि प्रभो ! संसार में आप ही सर्वश्रेष्ठ देव हैं। आपके दर्शन से चित्त को इतना सन्तोष होता है, कि वह मरने के बाद भी किसी दूसरे देव के दर्शन नहीं करना चाहता । हरिहर आदि देव रागी द्वेषी हैं, उनके दर्शन से चित्त सन्तुष्ट नहीं होता । इसीलिये वह आप जैसे देवों के दर्शनों की इच्छा रखता है ।। २१ ।।
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रा
न्नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ।। २२ ।।
माँयें अनेक जनतीं जगमें सुतों को,
हैं किन्तु वे न तुझसे सुत की प्रसूता ।
सारी दिशा धर रही रविका उजेला,
पै एक पूरब दिशा रवि को उगाती ।। २२ ।
टीका - भो परमेश्वर भो देवाधिदेव ! स्त्रीणां शतानि नाना स्त्रियः । शतशोऽनेकशः पुत्राञ्जनयन्ति । पुनरन्या काचन जननी त्वदुपम् भवता तुल्यं सुत । न प्रसूता न जनिता । त्वयोपमीयतेः सौ त्वदुपमस्तं । सर्वा एव दिशः । भानि नक्षत्राणि । दधति धरन्ति । प्राच्येव पूर्वदिगेव ।
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