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७२ : पंचस्तोत्र ( यदि वा) अथवा ( हन्त ) हर्ष है कि ( महताम् ) महापुरुषों का (प्रभाव:) प्रभाव ( चिन्त्यः ) चिन्तवन के योग्य ( न भवति'} नहीं होता है
भावार्थ-श्लोक में आये हुए 'अनल्पगरिमाणम्' पदके 'अधिक वजनदार' और 'अत्यन्त गौरव से युक्त'-श्रेष्ठ इस तरह दो अर्थ होते हैं। उनमें से आचार्य ने प्रथम अर्थ को लेकर विरोध बतलाते हुए आश्चर्य प्रकट किया है, और दूसरे अर्थ को लेकर उस विरोध का परिहार किया है ।।१२।।
क्रोधस्त्वया यदि विभो ! प्रथमं निरस्तो __ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौराः । प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके
नीलट्ठमाणि विपिनानि न किं हिमानी ।।१३।। तूने प्रभो ! प्रथम ही यदि रोष मारा,
मारे बता किस तरा फिर कर्म-चोर? या लोक में इस जगा नहिं क्या जलाता, ____ पाला सुशीतल, हरे तरु के वनों को ।। १३ ॥
टीका–भो विभो ! भो त्रिजगत्राथ ! यदि चेत्त्वया भगवता। क्रोधः प्रथमं निरस्तो निराकृतः । तदा तर्हि । वतेति विस्मयावहम् । किलेति सत्ये । कर्मचौरा अष्टकर्मदस्यवः । कथं ध्वस्ता: निर्मूलिताः । कर्माण्येव चौराः कर्मचौराः । यदि वा युक्तोऽयमर्थः । अमुत्र लोके । शिशरापि शीतलापि । हिमानी हिमसंहतिः । नीलगुमाणि विपिनानि किं न प्लोषति न दहति ? अपि तु प्लोषत्येव । नीला हरितो द्रुमा वृक्षा येषु तानि । प्लुष दाहे इत्यस्य धातोः प्रयोगः ।।१३।।
अन्वयार्थ (विभो !) हे स्वामिन् ! ( यदि ) यदि ( त्वया) आपके द्वारा (क्रोधः ) क्रोध (प्रथमम् ) पहले ही (निरस्तः) नष्ट कर दिया गया था, (तदा) तो फिर (वद ) कहिये कि आपने (कर्मचौराः ) कर्मरूपी चोर (कथम्) कैसे ( ध्वस्ता: किल) नष्ट