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विधापहारस्तोत्रम् : १२९ जिस तरह कि समुद्र में पड़े हुए जहाज और खेवटिया में हुआ करता है ।।१२।। सुखाय दुःखानि गुणाय दोषान्, धर्माय पापानि समाचरन्ति । तैलाय बाला: सिकतासमूह, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीयाः ।।१३।। गुणके लिये लोग करते हैं, अस्थि-धारणादिक बहु दोष । धर्महेतु पापों में पड़ते. पशुवधादिको कह निर्दोष ।। सुखहित निज तनको देते हैं, गिरिपातादि दुःख में ठेल । यों जो तव मतबाह्य मूढ़ वे, बालू पेल निकालें तेल ।। १३ ।।
टीका-भो देव ! अत्वदीयास्त्वत्तः पराङ्मुखाः पुमांसः । स्फुटं निश्चितं सुखाय सुखार्थं । दुःखानि समाचरति । गुणाय गुणार्थं दोषान् समाचरंति । धर्माय धर्मार्थ । पापानि समाचरति । पुनः बालस्तैलाय नैलार्थं । सिकताममहं लागुदाज़ ! निमीतानि पीलयन्तीत्यर्थः ।।१३।।
अन्वयार्थ—जिस प्रकार (बाला: ) बालक (तैलाय) तेल के लिये (सिकतासमूहम्) बालू के समूह को ( निपीडयन्ति) पेलते हैं, (स्फुटम् ) ठीक उसी प्रकार ( अत्वदीयाः) आपके प्रतिकूल चलने वाले पुरुष ( सुखाय ) सुख के लिये ( दुःखानि) दुःखों को, (गुणाय) गुण के लिये ( दोषान् ) दोषों को और ( धर्माय) धर्म के लिए (पापानि) पापों को (समाचरन्ति) समाचरित करते हैं।
भावार्थ- हे भगवन् ! जो आपके शासन में नहीं चलते, उन्हें धार्मिक तत्वों का सच्चा ज्ञान नहीं हो पाता इसलिये वे अज्ञानियों की तरह उल्टे आचरण करते हैं ! वे किसी स्त्री, राज्य या स्वर्ग आदि को प्राप्त कर सुखी होने की इच्छा से तरह-तरह के कायक्लेश कर दुःख उठाते हैं, पर सकाम तपस्या का कोई फल नहीं होता, इसलिये वे अन्त में भी दुःखी ही रहते हैं । हममें शील, शान्ति आदि गुणों का विकास हो' ऐसी इच्छा रखते हुए भी रतिलम्पटी-क्रोधी आदि देवों की उपासना करते हैं, पर उन देवों की