Book Title: Panchstotra Sangrah
Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 235
________________ २३० : पंच स्तोत्र टीका-भो देव ! यः कश्चित् परोदेवः स्वभावात् निसर्गेण अहधः अमनोज्ञः कुरूपः स आहाय्य॑भ्यः शृंगारेभ्यः स्पृहयति वांछति नान्यः, च पुनः भो देव ! यः कश्चित् वैरिणा शक्यो भवति स पुमान सततं निरंतर शस्त्रग्राही भवति । शस्त्राणि गृह्यातीति शस्त्रग्राही । नान्यः । हे देव ! त्वं सर्वांगेण सुभगः असि । सर्वशरीरेण सुन्दरोऽसि । पुनः त्वं वैरिणां शक्योपि न । परेणां बाह्यांतर वैरिणां कदापि जेतुं न शक्यः । तत्र तस्मात् कारणात् स्वभावसौन्दर्यालंकृतस्य तव भूषा वसन कुसुमैः किं प्रयोजनं? शृंगार पट्टकूलमाल्यादिभिः किंनिमित्तं ? भूषाश्च वसनानि च कुसमानि च तैः भूषावसनकुसुमैः । च पुनः निर्वैरिणस्तव उदौ; शस्त्रैः किं प्रयोजनं ? अपि तु न किमपि प्रयोजनमित्यर्थः ।। १९ ।। अन्वयार्थ हे भगवन् ! (यः) जो ( स्वभावात् ) स्वभाव से ( अहृद्यः स्यात् ) अमनोज्ञ-कुरूप होता है ( स एव ) वह ही (आहाय्र्येभ्यः ) वस्त्राभूषणादि के द्वारा शरीर को अलंकृत करने की (स्पृहयति) इच्छा करता है। (च) और (यः) जो (वैरिणा) शत्रु के द्वारा (शक्यः) जीतने योग्य होता है वहीं (शस्त्रग्राही भवति ) शस्त्रों को ग्रहण करने वाला होता है--उसे ही त्रिशूल-गदा-भाला-बरछी-तलवार आदि शस्त्रों की आवश्यकता होती है किन्तु हे भगवन् ! ( त्वम्) आप ( सर्वाङ्गेषु सुभगः असिः) सर्वांग रूप से सुन्दर हो, और ( त्वं परेषां न शक्यः ) तुम्हें शत्रु भी नहीं जीत सकते (तत्) इस कारण (तव) आपको ( भूषावसन कुसुमैः ) आभूषण-वस्त्र और फूलों से—विविध आभूषणों, सुन्दर वस्त्रों और मनोज्ञ सुगन्धित पुष्यों से (च) और (उदस्त्रैः अस्त्रैः ) पैने–तीक्ष्ण धार वाले नुकीले हथियारों से (किं) क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं । भावार्थ-आचार्य वादिराज ने इस श्लोक में सच्चे देवका यथार्थ स्वरूप दिखलाते हुए जिनेन्द्रदेव की अन्य हरिहरादिक देवों से सर्वोत्कृष्टता प्रकट की है, उन्हें ही निर्दोष और वास्तविक देव बताया है, क्योंकि संसार में बहुत से जीव अपनी अज्ञता वश

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