Book Title: Panchstotra Sangrah
Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 271
________________ २६६ : पंचस्तोत्र केयूर बाजूबन्द हारक कुण्डलों की कान्ति से. शोभा पाता अंग जिसका मुद्रिका की कान्ति से। नरेन्द्र मुनिवर से जो वन्दित मौलि से मुख शोभता, वागीश्वरि रक्षा करो नित दिव्यमूर्ति प्राप्त है।॥३॥ अर्थ-जिनका सर्वांग बाजूबन्द, हार, मणियों के कुण्डल और मुद्रिका आदि आभूषणों से विभूषित है । राजा, चक्रवर्ती व मुनिश्वरों द्वारा जो वन्दनीय है विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से युक्त निर्मल मुकुट से जिनका मुखमण्डल शोभा को प्राप्त है, ऐसी सरस्वती देवी हमारी रक्षा करें। भावार्थ-ज्ञान हो जिसका शरीर है ऐसी माँ जिनवाणी का सर्वांग अनेकान्त-स्याद्वादरूप दो बाजूबन्द से षद्रव्यरूप मणियों के हार, दया, अनुकम्पा रूप कर्ण कुण्डल और एक शाश्वत आत्मा की मुद्रिका ( अंगूठी ) रूप आभूषणों से सुशोभित है, जो चक्रवर्ती, मुनीन्द्र, आचार्य , गणधर आदियों से भी वन्दनीय है तथा अनेकान्त रूप विविध रत्नों से युक्त प्रमाण रूप उत्तम मुकुट से जिसका मुखमण्डल शोभा को प्राप्त हो रहा है ऐसी माँ जिनवाणी प्रतिदिन हमारी रक्षा करें। मंजीरकोत्कनककंकणकिंकणीनां, कांच्याश्च झंकृतरवेण विराजमाने । सद्धर्म वारिनिधि संतति वर्द्धमाने, ___वागीश्वरि प्रतिदिनं ममरक्ष देवि ।।४।। स्वर्ण के तोड़े रु कंकण, धुंघरुकी झांझ से. कमरबन्धों की झंकार से. जो शुशोभित साज से। सद्धर्म उदधि को बढ़ाती जो निरन्तर वाणी से, वागीश्वरि रक्षा करो नित दिव्यमूर्ति प्राप्त है ।। ४ ।। अर्थ---जो स्वर्ण के तोड़े, कंकण और घुघुरूओं तथा कमरबन्धों की झंकार करती हुई विराजमान हैं, भगवान जिनेन्द्र

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