Book Title: Panchstotra Sangrah
Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 241
________________ २३६ : पंच स्तोत्र वास्तविक स्वरूपका परिज्ञान करते हैं। और उसी तरह चैतन्य जिनप्रतिमा बनने का अभ्यास करते हैं, अतएव जैसा प्रभाव आपका है वैसा अन्य हरिहरादिक देवों का कहाँ हो सकता है ? क्योंकि वे रागी-द्वेषी हैं अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर अनुग्रह करते हैं और निंदकों पर रुष्ट होते हैं उन्हें शाप दे देते हैं । परन्तु हे देव ! ये सब बातें आप में नहीं हैं, पूजक और निंदकों पर आपका समान भाव रहता है क्योंकि आप जिन हैं, इन सब विकारों को जीत चुके हैं । अतः आप जैसा प्रभाव अन्य किसी भी देवी-देवता का नहीं हो सकता है ।। २२ ।। देव स्तोतुं त्रिदिवगणिकामंडलीगीतकीर्ति, तोतूर्ति त्वां सकलविषयज्ञानमूर्तिजनो यः । तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पंथा स्तत्त्वग्रंथस्मरणविषये नैष मोमूर्ति मर्त्यः ।।२३।। सुरतिय गावै सुयश सर्वगति ज्ञानस्वरूपी। जो तुमको घिर होंहि नमैं भवि आनन्द रूपी ।। ताहि क्षेमपुर चलन बाट बाको नहिं हो है। श्रुत के सुमरनमाहेि सो न कबहूँ नर मोहैं ।। २३ ।। ___टीका– भो देव ! यः जनः त्वां परमेश्वरं स्तोतुं तोतूर्ति त्वरितो भवति कथम्भूतं त्वां? त्रिदिव गणिकामंडलीगीतकीर्तिः त्रिदिवस्य स्वर्गस्यगणिका अप्सरसोऽनीकिन्यो वा तासां मंडली तथा गीता कीर्तिर्यस्य स तं पुनः कथम्भूतं ? यः सकल विषयज्ञानमूर्ति: सकलविषयं लोकाऽलोकाकाशविषय यत् ज्ञानं तस्य मूर्तिः । तस्य पुरुषस्य जातु कदाचित् पंथा: मोक्षमार्गः न जोहूर्ति न कुटिलो भवति । कथम्भूतस्य तस्य ? क्षेमपदं मोक्षस्थानं अटतः व्रजतः । एषः मर्त्यः तत्त्वग्रंथस्मरणविषये न मोमूर्ति न संदेहं प्राप्नोति । तत्त्वग्रंथस्य स्मरणं तस्य विषयस्तस्मिन् ।। २३ ।। अन्वयार्थ-( देव !) हे देव ! ( यः जनः ) जो मनुष्य

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