Book Title: Panchstotra Sangrah
Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 248
________________ अकलंक स्तोत्र : २४३ शास्त्रार्थ के लिये स्वीकृति दे दी । शास्त्रार्थ का पत्र संघ श्री के पास भेजा गया । संघश्री पत्र पढ़ते ही क्षोभित हो उठा। राजा हिमशीतल अकलंकदेव को सम्मानपूर्वक राजसभा में लाये । संघश्री के साथ शास्त्रार्थ करवाया । संघश्री अफसंबादेव के गांडर को रेल सबस गया । उसने रात्रि के समय अपने धर्म की अधिष्ठात्री देवी की आराधना की । देवी उपस्थित हो गई । संघश्री ने कहा-देखती हो, धर्म पर बड़ा संकट है उसे दूर कर धर्म की रक्षा करनी है । बुद्धधर्म की रक्षा करनी होगी । देवी ने कहा-मैं शास्त्रार्थ करूँगी पर खुली सभा में नहीं; किन्तु परदे के भीतर घड़े में रहकर । प्रातः संघश्री राजसभा में पहुँचा और राजा से बोला—हम आज शास्त्रार्थ परदे के भीतर रहकर करेंगे। शास्त्रार्थ के समय किसी का मुंह नहीं देखेंगे । राजा ने स्वीकृति दे दी । संघश्री ने परदा लगवा दिया । संघश्री ने देवी की पूजा कर एक घड़े में आह्वान किया । । घड़े की देवी अकलंक के साथ पूर्ण शक्ति से शास्त्रार्थ करती रही ! इस प्रकार शास्त्रार्थ होते हुए छह माह बीत गये । किसी को विजय नहीं हो पाई । अकलंकदेव को चिन्ता हुई । यह संघश्री पहले मेरे सामने एक दिन भी नहीं ठहर सका था । अब छह माह से लगातार शास्त्रार्थ कर रहा है । इसका क्या कारण है । चिन्तित अवस्था में बैठे देख चक्रेश्वरी देवी ने प्रगट हो अकलंक देव से कहा-हे प्रभो ! आपसे शास्त्रार्थ करने की शक्ति मनुष्य-मात्र में नहीं है । संघश्री ने तारादेवी का आह्वान कर घड़े में स्थापित किया है वही इतने दिनों से शास्त्रार्थ कर रही हैं । आप प्रातः शास्त्रार्थ के समय देवी जिस विषय का प्रतिपादन करे उसे पुन: दोहराने को कहना । वह दोहरा नहीं सकेगी और उसे नीचा देखना पड़ेगा। प्रात: अकलंकदेव राजसभा में आये । उन्होंने राजा से कहाराजन्, मैंने इतने दिन संघश्री से वाद किया यद्यपि मैं संघश्री को समय मात्र में हरा देता पर मैंने जिनशासन का प्रभाव दिखाने के लिये इतना

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