Book Title: Panchstotra Sangrah
Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 261
________________ २५६ : पंचस्तोत्र त्रिशूल, धनुष, सर्प आदि नहीं हैं । जिनका मुख उग्र/भयानक न होकर पूर्ण वीतरागता के रस से भीगा हुआ है । जिसके पास न काम है, न स्त्री है, - जैन, गीत, नृत्य आदि कार्य नहीं हैं, तो नित्य निरञ्जन निर्विकार समता कुल देवी में सतत लीन है. कर्ममल से रहित है, निरञ्जन है, सूक्ष्म है, शिव है, सूक्ष्म है वह विश्वव्याप्य तीन लोक का स्वामी सब जगह हमारी रक्षा करें ।। १० ।। नो ब्रह्माङ्कितभूतलं न च हरेः शम्भोर्नमुद्राङ्कितं नो चन्द्रार्क कराङ्कितं सुरपतेर्वज्राङ्कितं नैव च । षड्वक्त्राङ्कित बौद्धदेव हुतभुग्यक्षोरगैर्नाङ्कितं नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम् ।।११।। अन्वयार्थ—(वादिनः) हे वादियों (इदं) इस (जगत् ) संसार को (ब्रह्माङ्कित भूतलं) ब्रह्मा से व्याप्त भूभिवाला ( नो) नहीं ( पश्यत ) देखो । च और ( हरेः ) श्रीकृष्ण की (मुद्राङ्कितम्) मुद्रा से व्याप्त (शम्भोः ) महादेव जी की (मुद्राङ्कितम् ) मुद्रा से व्याप्त ( चन्द्रार्कशङ्कितम् ) चन्द्रमा और सूर्य की किरणों से व्याप्त (सुरपतेः ) सुरपति/इन्द्र के ( वाङ्कित्तम् ) वज्र से व्याप्त (च) और (षड्वक्त्राङ्कितबौद्धदेवहुतभुग्यक्षोरगैः) गणेश, बौद्धदेव, अग्नि, यक्ष और शेषनाग से व्याप्त ( नो) नहीं ( पश्यत ) देखो । अपितु ( वादिनः ) हे वादियों ! तुम लोग (इदम् ) इस ( जगत् ) संसार को ( नग्नं) दिगम्बर ( जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम् ) वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी श्रीजिनेन्द्रदेव की मुद्रा से अंकित ( पश्यत ) देखो। भावार्थ-ईश्वर के स्वरूप में विवाद करने वाले वादी लोग इस संसार को विभिन्न रूपों में देखते हैं । उसका निराकरण करते हुए आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी वादियों को पुकार कर कहते हैं—हे वादियों, यह संसार ब्रह्मा से व्याप्त भूमिवाला, कृष्णा की मुद्रा से व्याप्त, महादेव की मुद्रा से व्याप्त, चन्द्रमा और सूर्य की

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