Book Title: Panchstotra Sangrah
Author(s): Pannalal Jain, Syadvatvati Mata
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 242
________________ एकीभाव स्तोत्र : २३७ (त्रिदिवगणिकामण्डलीगीतकीर्तिम् ) देवाङ्गनाओं के समूह द्वारा गाई गई है कीर्ति जिसकी ऐसे तथा (सकलविषयज्ञानमूर्तिम् ) समस्त पदार्थों के विषय करने वाले ज्ञानस्वरूप ( त्वां) आपकी (स्तोतुम् ) स्तवन करने के लिये ( तोतूर्तिः) शीघता करता है (क्षेमम् पदम् ) कल्याणकारी स्थान अर्थात् मोक्षको ( अटतः) जाते हुए ( तस्य) उस मनुष्य का ( पन्थाः) मार्ग (जातु ) कभी न (न जोहूर्ति ) टेढ़ा नहीं होता और ( न एषः मर्त्यः) न यह मनुष्य (तत्त्वग्रन्थ-स्मरणविषये) तत्त्वग्रन्थों के स्मरण के विषय में (मोमूर्ति) मूर्च्छित होता है-मोहको प्राप्त होता है। भावार्थ हे भगवन् ! जो भद्र मानव आपकी समीचीन भक्ति करता है और आपके पवित्र अनन्तज्ञानादि गुणों की स्तुति करता है, उनका चिन्तवन और मनन करता है वह शीघ्र ही कर्मबन्धन को काटकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है और कर्मबन्ध के विनाश से पूर्णज्ञानी होता हुआ फिर कभी भी अज्ञान को प्राप्त नहीं होता है ।। २३ ।। चित्ते कुर्वनिरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपं, देव त्वां यः समयनियमादादरेणस्तवीति । श्रेयोमार्ग स खलु सुकृती तावता पूरयित्वा, कल्याणानां भवतिविषयः पञ्चधा पञ्चितानाम् ।।२४।। अतुलचतुष्टय रूप तुम्हें जो चितमें धारै । आदरसों तिहँकालमाहि जब थुति विस्तारै ।। सो सुकृती शिव पंथ भक्ति रचना कर पूरै। पंच कल्यानक ऋद्धि पाय निहा दुख चूरै ।। २४ ।। टीका-भो देव ! यः पुमान् त्वां भगवंतं चित्ते कुर्वन समयनियमात्कालनियमात् आदरेणस्तवीति तोष्टचीति । समयनियमस्तस्मात् । कथम्भूतं त्वां ? निरवधिसुखज्ञानदृग्वीर्यरूपं सुखं च ज्ञानं च दृग् च वीर्यं च सुखज्ञानदृग्वीर्याणि । निरवधीनि मर्यादारहितानि च

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