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एकीभाव स्तोत्र : २०९ चक्र । कनकविकारं कनकमयंतस्यभावस्तां । हे जिन ! मम स्वान्तगेहं ममान्त करणमंदिरं त्वं प्रतिष्ठः सन् यत् इदं मदीयं कुष्ठरोगाक्रान्तं वपुः शरीरं सुवर्णीकरोषि, तत्किंचित्रं तत्किमाश्चर्यं न किमपि आश्चर्यमित्यर्थः । असुवर्ण सुवर्णं करोषि, इति सुवर्णीकरोषि । स्वान्तमेव गेहं स्वान्तगेहं कीदृशं स्वान्तगेहं । ध्यानमेवद्वारं यस्मिन् तत् । पुनः रुचि करोतीति रुचिकर मनोहरमित्यर्थः ।। ४ ।।।
अन्वयार्थ (हे देव !) हे भगवन् ! ( भव्यपुण्यात् ) भव्यजीवोंके पुण्यके द्वारा ( इह ) यहाँ पर (त्रिदिवभवनात्) स्वर्गलोकसे माता के गर्भ में ( एष्यता) आने वाले (त्वया)
आपके द्वारा (प्राकएव) पहले ही जब (इदम्) यह ( पृथ्वीचक्रम्) भूमण्डल पृथ्वी मण्डल (कनकमयतां) सुवर्णमयता का । निन्य ) प्राप्त कराया गया था। तब ( हे जिन ! ) हे जिनेन्द्र ! ( ध्यानद्वारं ) ध्यानरूपी दरवाजे से युक्त (मम) मेरे (हमारे) (रुचिकरम्) सुन्दर (स्वान्तगेहं) मनरूपमन्दिर में (प्रविष्ट) प्रविष्ट हुए ( इदं वपुः ) इस शरीरकोकुष्ठरोग से पीड़ित मेरे इस शरीरको ( यत् ) जो (सुवर्णीकरोषि) सुवर्णमय कर रहे हो (तत्किचित्रम् ) उसमें क्या आश्चर्य है ? अर्थात् कुछ नहीं।
भावार्थ-जब कि स्वर्गलोकसे माता के गर्भ में आने के छह महीने पहले ही आपने इस पृथ्वीमण्डल को सुवर्णमय बना दिया, तो फिर ध्यान के द्वारा मेरे मनोहर अन्त:करणरूप मन्दिर में प्रविष्ट हुए आप कुष्ठरोग से पीड़ित मेरे इस शरीर को यदि सुवर्णमय बना दें तो इसमें क्या आश्चर्य है अर्थात् कुछ नहीं ।। ४ ।। लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निनिमित्तेन बन्धु
स्त्वय्येवाऽसौ सकलविषया शक्तिरप्रत्यनीका । भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्तशय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव ततः क्लेशयूथं सहेथाः ।। ५ ।।