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जिनचतुर्विशतिका स्तोत्र : १७७ तथाभूतो निनदो नादो येषां तानि तथाभूतानि निनदानि आतोद्यानि ततविततघनसुषिरवाद्यानि तैर्माद्यन्तो हृष्यन्तो निलिम्पा देवा यत्र । पुनरपि किंविशिष्टः । हस्ताम्भोजातेषु वरकमलेषु लीलाया वैदग्ध्या विनिहितानि विशेषणे न्यस्तानि । सुमनसां पुष्पाणां दामानि मालास्तै रम्या मनोहरा अमरस्त्रियो देव्यस्ताभिः काम्यः स्पृहणीय ।।१०।। ___अन्वयार्थ (देव) हे देव ! (ते) आपके ( कल्याणपूजाविधिषु) पंचकल्याणकों के पूजा-कार्य में, (नृत्यत्स्वर्दन्तिदन्ताम्बुरुहवननटन्नाकनारीनिकायः ) नृत्य करते हुए ऐरावत हाथी के दाँतों पर स्थित कमल-वन में नृत्य कर रहा है देवाङ्गनाओं का समूह जिसमें ऐसा, (सद्यः) शीट ही ( त्रैलोक्ययात्रोत्सवकरनिनदातोद्यमाद्यन्निलिम्पः ) त्रिभुवन में यात्रा के उत्सव को करने वाली है ध्वनि जिसकी ऐसे बाजों से हर्षित हो रहे हैं देव जिसमें ऐसा, तथा (हस्ताम्भोजातलीला-विनिहितसुमनोदामरम्यामरस्त्रीकाम्यः ) हस्तकमलों के द्वारा क्रीड़ा पूर्वक धारण की गई फूलों की मालाओं से रमणीय देवियों के द्वारा सुन्दर ( देवागमः ) देवागम (विजयते ) जयवन्त है- सर्वोत्कृष्ट है। भावार्थ हे भगवन् ! आपके कल्याणकों में जो देवों का आगमन होता है, वह संसार में सबसे उत्कृष्ट है-उसकी जय होवे ।।१०।।
शार्दूलविक्रीडित छन्द चक्षुष्मानहमेव देव भुवने नेत्रामृतस्यन्दिनं त्वद्वक्वेन्दुमतिप्रसादसुभगैस्तेजोभिरुद्भासितम् । तेनालोकयता मयाऽनतिचिसच्चक्षुः कृतार्थीकृतं द्रष्टव्यावधिवीक्षणव्यतिकरव्याजृम्भमाणोत्सवम् ।।११।। देव ! दृगों में अमृत-वर्षक, अति प्रसाद से शोभावान । तेज अलंकृत तव मुख-शशि का, दर्शन कर मैंने भगवान ।। सर्वोत्तम द्रष्टव्य वस्तु का, दर्शन कर दृग किये पवित्र । अत: विश्व में मैं ही हूँ, अब नेत्रवान हे त्रिभुवन मित्र ।। ११ ।।