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८२ : पंचस्तोत्र
टीका–भो प्रभो ! तव परमेश्वरस्य । गिरः दिव्यध्वनयः । । पीयूषतां अमृतभावं । समुदीरयन्ति जना गिरोऽमृतमयाः कथयन्ति । पीयूषस्य भावः पीयूषता तां । एतत् स्थाने इति युक्तं । कुतः यत: कल्याणात् । भव्याः प्राणिनः । या अमृतमया गिर: पोत्वा । तरसापि वेगेन । अजरामरत्वं व्रजन्ति अजरामरस्य भावः अजरामरत्वं । कीदृशाः भव्याः ? परमः सर्वोत्कृष्टः न चासौ संमदः आनंदस्तत्संग संयोगं भजन्ते इत्येवंशीलाः । कथंभूता गिरः ? गम्भीरं च तत् हृदयं च तदेव उदधिः समुद्रः तस्मात्सम्भवः उत्पत्तिर्यासां तः ।।२१।।
__ अन्वयार्थ—(गभीरहदयोदधिसंभवायाः) गम्भीर हृदयरूपी समुद्र में पैदा हुई ( तव ) आपकी ( गिरः) वाणी के ( पीयूषताम् ) अमृतपने को लोग (स्थाने ) ठीक ही ( समुदीरयन्ति ) प्रकट करते हैं । ( यतः) क्योंकि ( भव्याः) भव्य जीव ('ताम्' पीत्वा) उसे पीकर (परमसंमदसङ्गभाजः 'सन्तः') परम सुख के भागी होते हुए (तरसा अपि) बहुत ही शीघ्र (अजरामरत्वम् ) अजरअमरपने को (व्रजन्ति ) प्राप्त होते हैं।
भावार्थ-लोक में प्रचलित है कि अमृत गहरे समुद्र से निकला था और उसका पान करने से देव लोग आनन्दित होते हुए अजर-बुढ़ापा रहित तथा अमर-मृत्यु रहित हो गये थे । भगवन् ! आपकी वाणी भी आपके गंभीर हृदयरूपी समुद्र से पैदा हुई है, और उसके सेवन करने से लोक परम सुखी हो अजर-अमर हो जाते हैं- मुक्त हो जाते हैं । ऐसी हालत में लोग यदि यह कहें कि आपकी वाणी अमृत है, तो ठीक ही कहते हैं । यह 'दिव्यध्वनि' प्रातिहार्य का वर्णन है ।।२१।।
स्वामिन् ! सुदूरमवनप्य समुत्पतन्तो ___ मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुङ्गवाय
ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावाः ।।२२।।