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विषापहारस्तोत्रम् : १२३ द्यावापृथिव्योर्गगनावन्योः पृथुता विशालता तथैवेति वत्र तिष्ठतस्तत्रैवेत्यर्थः । त्वदीया सा गंभोरा तुंगता विशालता च भुवनान्तराणि लोकालोकमशेषं व्यापत् प्राप्नोति स्म । अनेन सर्वज्ञस्य महिमा लोकोत्तरः प्रकटितः ।।८॥
अन्वयार्थ—(अब्धेः) समुद्रकी ( अगाधता) गहराई (तत्र अस्ति ) वहाँ है ( यत: स: पयोधिः ) जहाँ वह समुद्र है ! ( मेरोः) सुमेरुपर्वतकी ( तुङ्गा प्रकृतिः ) उन्नत प्रकृति ऊँचाई (तत्र ) वहाँ है (पत्र सः ) जहाँ वह सुभेझ पर्वत है ( च ) और ( धावापृथिव्योः) आकाश-पृथिवी की ( पृथुता) विशालता भी (तदैव ) उसी प्रकार है अर्थात् जहाँ आकाश और पृथिवी हैं वहीं उनकी विशालता है । परन्तु ( त्वदीया 'अगाधता, तुङ्गा प्रकृतिः पृथुता च') आपकी गहराई, उन्नत प्रकृति और हृदय की विशालता ने ( भुवनान्तराणि) तीनों लोकों के मध्यभाग को ( व्याप) व्याप्त कर लिया है।
__ भावार्थ-अगाधता शब्द के दो अर्थ हैं-समुद्र वगैरह में पानी की गहराई और मनुष्य-हृदय में रहनेवाले धैर्य की अधिकता । 'तुङ्गा प्रकृति शब्द भी द्वयर्थक है । पहाड़ वगैरह की ऊँचाई और मन में दीनता का न होना। इसी तरह पृथुता, विशालता के भी दो अर्थ हैं । जमीन आकाश वगैरह के प्रदेशों का फैलाव और मन में सबको अपनाने के भाव, सब के प्रति प्रेममयी भावना।
भगवन् ! समुद्र की गम्भीरता समुद्र के ही पास है, मेरुपर्वत की ऊँचाई मेरु के ही पास है और आकाश-पृथिवी का विस्तार भी उन्हीं के पास है, परन्तु आपकी अगाधता = धैर्यवृत्नि. ऊँचाई = अदैन्यवृत्ति और पृथुता-उदारवृत्ति सारे संसार में फैली हुई है । इसलिये जो कहा करते हैं कि आपकी गम्भीरता समुद्र के समान है, उन्नत प्रकृति मेरु की तरह है और विशालता आकाशपृथिवी के सदृश है, वे भूल करते हैं ।