Book Title: Panchshati
Author(s): Vidyasagar, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Gyanganga

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Page 5
________________ आद्य-निवेदन पूज्यवर आचार्य विद्यासागर जी महाराज दिवंगत पूज्यवर आचार्य ज्ञानसागर जी के प्रबुद्धतम शिष्य हैं। जन्मना कर्णाटक भाषाभाषी होने पर भी संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार है। हिन्दी भाषा का इतना शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण होता है कि उसे सुनकर यह प्रतीत नहीं होता है कि हिन्दी इनकी मातृभाषा नहीं है। आप ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहने वाले अद्वितीय साधु हैं । पूर्वभव के संस्कार से अल्पवय में ही संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो आपने निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण की है। आपका प्रत्येक क्षण ज्ञान की आराधना में व्यतीत होता है। किसी अभ्यागत के आने पर दो चार मिनिट में ही कुशल प्रश्न को समाप्त कर शास्त्रीय चर्चा शुरु कर देते हैं। आपकी इस तपोमय साधना काही फल है कि आप षट्खण्डागम तथा कषायपाहुड जैसे करणानुयोग के कठिन ग्रन्थों में पारंगत हो गये हैं और इसी के फलस्वरूप सागर, जबलपुर, ललितपुर, खुरई और पपौराजी में इन ग्रन्थों की नौ वाचनाएँ आयोजित की जा चुकी हैं। दक्षिणप्रान्तीय होने पर भी अनेक वर्षों से आपका मंगल-विहार मध्यप्रदेश में हो रहा है और उससे प्रभावित होकर यहाँ के अनेक युवा महाव्रत धारण कर स्व-पर कल्याण कर रहे हैं। आपके संघ में अनेक साधु जैनागम के अच्छे ज्ञाता और प्रभावक वक्ता हैं। यद्यपि आप अपने संघ में आर्यिकाओं को नहीं रखते हैं तथापि आपसे दीक्षित आर्यिकाओं के अनेक संघ अपनी निर्दोष चर्या और वक्तृत्व कला से जिनशासन की महती प्रभावना कर रहे हैं। आचार्य विद्यासागर जी प्रतिभासंपन्न कवि भी हैं। इसीलिये आपने अनेक स्तोत्रों तथा कुन्दकुन्द और समन्तभद्राचार्य के अनेक ग्रन्थों का पद्यानुवाद किया है समणसुत्त का जैनगीता के नाम से पद्यानुवाद किया है । कुन्दकुन्द का कुन्दन नाम से वसन्ततिलका छन्द में समयसार का जब मधुर स्वर से पाठ करते हैं तब श्रोता भावविभोर हो जाते हैं। दो वर्ष पूर्व आपका मूकमाटी नाम का आध्यात्मिक महाकाव्य भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्रकाशित हुआ है जो हिन्दी जगत् में बहुचर्चित और बहुप्रशंसित हुआ है। संस्कृतभाषा के आप अधिकारी विद्वान् ही नहीं सुकवि भी हैं। संस्कृत साहित्य में समन्तभद्राचार्य ने स्तुतिविद्या नाम से जिनशतक की रचना की थी। महाकवि भर्तृहरि के शृंगारशतक, वैराग्यशतक और नीतिशतक संस्कृतज्ञ विद्वानों के बीच बड़े आदर से पढ़े जाते हैं। शतक रचना की लोकप्रियता संस्कृत में ही नहीं प्राकृत और हिन्दी में भी प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई है अतः प्राकृत में भी ध्यानस्तव आदि तथा हिन्दी में भूधरशतक आदि लिखे गये हैं। यह परम्परा शतक तक ही सीमित नहीं रही सप्तशती (सतसई) के नाम से बुधजन और बिहारी ने भी अपनी रचनाओं से हिन्दी काव्य भाण्डार को भरा है। आचार्य विद्यासागर जी का भी ध्यान शतक रचना की ओर आकृष्ट हुआ, और उसके फलस्वरूप उन्होंने विभिन्न वर्षायोगों में 1 श्रमणशतक 2 निरंजनशतक 3 भावनाशतक 4 परिषहजयशतक (ज्ञानोदय) और 5 सुनीतिशतक की रचना की। संस्कृत के साथ ही आपने इन सभी शतकों का पद्यानुवाद भी किया है। इन शतकों की रचना कहाँ, कब हुई और उनका प्रकाशन कहाँ से हुआ ? इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैं

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