Book Title: Padma Pushpa Ki Amar Saurabh
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 61
________________ प्रथम फल : जिनेन्द्र पूजा ५७ प्रवहमान उफनती नदी में कूद पड़े। तभी एक अद्भुत चमत्कार घटित हुआ । नदी की फेनोद्वेलित अपार जलराशि पर कमल-पुष्पों की एक अटूट श्रृंखला प्रकट हो गई। जिनके ऊपर सहजता से अपने पाँव रखते हुए वे चलकर नदी के उस पार गुरु के सन्निकट पहुँच गये। यह सब गुरु की वरद् कृपा का आशीर्वाद, चमत्कार था। गुरुदेव ने जब यह सुना तो उन्हें छाती से लगा लिया और गद्गद कण्ठ से आशीर्वाद दिया-‘“जाओ वत्स ! तुम्हारा सदैव कल्याण हो, तुम्हारा अध्ययन सार्थक हो, तुम्हारी ब्रह्मविद्या भी फलवती हो । पद्मों पर पाँव रखकर चलने के कारण तभी से उनका नाम 'पद्मपाद' पड़ गया। अर्थात् सनन्दन 'पद्मपाद' के नाम से प्रसिद्ध हुए। आगे चलकर उन्होंने आचार्य शंकर अर्थात् गुरुदेव के महान् ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' पर एक अत्यन्त हृदयग्राही 'पंचपदिका' नामक सुविस्तृत टीका का निर्माण किया । जो आज भी 'ब्रह्मसूत्र' की महत्त्वपूर्ण टीका मानी जाती है । यह सब गुरु-भक्ति का प्रसाद है, फल है, परिणाम है। गुरु की भक्ति ही जिनेन्द्र भगवान की सच्ची पूजा है। छठे फूल की हम चर्चा कर आये हैं। अब हम सातवें फूल - तप की शाब्दिक, मौलिक, शास्त्रीय चर्चा करेंगे। ७. तप तप की महिमा का कहाँ तक वर्णन किया जाये । संसार में जो भी शक्ति है, वह तप की ही है, संसार तप के बल पर ही ठहरा हुआ है। आज खान-पान सम्बन्धी तृष्णा बढ़ गई है, लोग जिह्वा को अपने वश में करने के बदले जिह्वा के वश में हो रहे हैं। इसी से तप बल भी कम हो गया है और इसी में संसार कष्ट भोग रहा है, जो स्वेच्छापूर्वक समभाव से कष्ट नहीं भोगते, उन्हें अनिच्छा से, व्याकुल भाव से कष्ट भोगना पड़ता है। स्वेच्छापूर्वक कष्ट भोगने में एक प्रकार का उल्लास होता है और अनिच्छा से कष्ट भोगने में एकान्त विषाद होता है । स्वेच्छापूर्वक कष्ट सहने का परिणाम मधुर होता है और अनिच्छा से कष्ट सहने का नतीजा कटुक होता है । तप एक प्रकार की अग्नि है, जिसमें समस्त अपवित्रता सम्पूर्ण कल्मष एवं समग्र मलिनता भस्म हो जाती है । तपस्या की अग्नि में तप्त होकर आत्मा सुवर्ण की भाँति तेज से विराजित हो जाती है । अतएव तप धर्म का महत्त्व अपार है। ‘श्री उत्तराध्ययनसूत्र' में भगवान महावीर स्वामी से पूछा गया - “सवेणं भंते ! जीवे किं जणयई ? ' - हे भन्ते ! तप करने से जीव को क्या लाभ होता है ? "तवेणं वोदाणं जणयई । ” - हे शिष्य ! तप करने से ही आत्मा बँधे हुए अशुभ कर्मों का क्षय करता है।

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