Book Title: Padma Pushpa Ki Amar Saurabh
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 130
________________ * :१२६ * . * पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * अर्थात् दूसरे में तो अगर एक भी दोष दिखाई दे जाये तो व्यक्ति हँसने लगता है तथा प्रसन्न होता है, किन्तु अपने उन दोषों को नहीं देखता जिनकी कोई गिनती ही नहीं है। यानि न जिसकी आदि है और न अन्त है। इसीलिए कवि श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज का कथन है कि तू ऐसा उल्टा काम कर ही मत। दूसरे के अवगुणों को देख-देखकर अपने अवगुणों में वृद्धि मत कर। - जैसे-एक गाय है। वह खाती है तथा कभी-कभी मलिन पदार्थ भी ग्रहण कर लेती है। किन्तु उससे तुझे क्या मतलब है ? गाय क्या खाती है और क्या नहीं? इसकी चिन्ता छोड़कर तुझे तो केवल उसका दूध, दही, मक्खन और घी आदि सार पदार्थ ही ग्रहण करना है। अन्त में कहा गया है-अरे अज्ञानी ! अगर तुझे दोष ही देखने हैं तो औरों के क्यों देखता है ? अपने ही क्यों नहीं देखता। औरों के दोष देखत्ते से आखिर तुझे क्या लाभ होगा? अपने स्वयं के देख लेगा तो कुछ आत्म-सुधार तो कर सकेगा। इसलिए उचित यही है कि अपने आप में झाँक, आत्म-निरीक्षण कर। जिन्होंने ऐसा किया है, उनका कहना भी है . “बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न दीखा कोय। * जो घर सोधा आपना, मुझसे बुरा न कोय॥" .... वस्तुतः सच्चे महापुरुष अपना ही दोष दर्शन करते हैं। दोषदर्शी न बनें .. . १ गुण जहाँ भी हों, वहाँ से ग्रहण करना चाहिए, दोषों को छोड़ना चाहिए या किसी में दोष है तो उसके विषय में मौन रहना चाहिए किन्तु आजकल उल्टा कार्य हो रहा है। .. . ...... एक चित्रकार था। उसने एक सुन्दर चित्र बनाकर चौराहे पर लटका दिया, साथ ही लिख दिया कि इसमें जो दोष हों वे लिख दिये जावें, इसमें सुधार कर दिया जायेगा। जो भी उस रास्ते से निकलता। उस चित्र को देखता और दोष निकालकर उस पर लिख देता जिससे उस सुन्दर चित्र का रूप ही विकृत हो गया। सायंकाल चित्रकार आया और उसने चित्र की कुरूपता को देखा तो उठा ले गया और दूसरे दिन एक नवीन चित्र तैयार करके पुनः चौराहे पर लगा दिया और उसमें लिख दिया कि इसमें जो गुण हों, उन्हें पर्ची पर लिख देवें, इस चित्र पर हाथ न लगावें, तो किसी ने चित्र के गुणों को भी नहीं लिखा और न चित्र पर हाथ ही लगाया। इस उदाहरण से शिक्षा मिलती है कि लोगों की दृष्टि छिन्द्रान्वेषी है, दोषों को

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