Book Title: Padma Pushpa Ki Amar Saurabh
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan

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Page 112
________________ १०८ * पद्म-पुष्प की अमर सौरभ * मत्स्यपालन आदि भी इसी दया में गर्भित है । यह दया अत्यन्त हेय है, स्वरूपदया, द्रव्यदया है। (८) अनुबन्धदया- जो मन में कृपाभाव धारण करके माता, गुरु आदि की कृपा के समान रोगादि कारणों से पीड़ा देता है, वह अनुबन्धदया है । अर्थात् माता रोते हुए बच्चे को जबर्दस्ती दवा या दूध पिलाती है और शिक्षक छात्र को अभ्यास नहीं करने के कारण दण्ड देता है, परन्तु इसमें उनकी निर्दयता नहीं है, क्योंकि हृदय में उनके हित के भाव हैं। सम्यग्दृष्टि जीव अनुकम्पा से सम्यक्त्व का पोषण करता है, उत्कृष्ट पुण्य का संचय करता है और अगले जन्म में सुलभबोधि बनकर व्रत ग्रहण की भूमिका का निर्माण करता है। करुणामय हृदय वाले धर्मरुचि अणगार को है कि जिन्होंने क्रीड़ियों की रक्षा के लिए विष तुम्बे का साग खाकर अपने जीवन का बलिदान दिया । धर्मरुचि अणगार - बहुत पुराने युग की बात है । चम्पानगरी में सोमदेव, सोमभूति और सोमदत्त नाम के तीन ब्राह्मण बन्धु रहते थे। उनकी पत्नियाँ थीं यथाक्रम - नागश्री, यज्ञश्री और भूतश्री । घर की व्यवस्था के लिए तीनों के कामकाज की बारी बाँध रखी थी। अपनी-अपनी बारी के दिन घर का भोजन, सफाई आदि सब काम वे अपने आप निपटा लेती थीं। एक दिन भोजन बनाने की बारी नागश्री की थी। उसने तुम्बी (लौकी) का साग तेज मसालों और बढ़िया छौंक से बहुत ही स्वादिष्ट बनाने का उपक्रम किया । आज सबरे से ही अपनी भोजनकला की दक्षता का अहंकार लिए नागश्री पाकशाला में नाच रही थी । किन्तु नागश्री ने सांग का अन्तिम परिपाक देखने के लिए ज्यों ही एक टुकड़ा चखा, तो तुम्बी की कडुआहट से समूचा मुख, मानो जहर से भर गया। मधुर तुम्बी की जगह कड़वी तुम्बी आ गई थी, भूल से । नागश्री ने चुपचाप उसे एक ओर रखा और झटपट दूसरा साग बनाकर सब लोगों को यथासमय भोजन करवा दिया। नागश्री के अब जी में जी आया कि चलो खैर इज्जत बच गई। अन्यथा पता चल जाता तो देवरानियाँ कितना मजाक उड़ातीं और परिवार में मेरी कितनी अवहेलना होती । " अब नागश्री को एक ही चिन्ता थी कि छिपाकर रखे साग को कब और कहाँ डा, ताकि किसी को इधर-उधर पता न लगे ।

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