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नलविलासे माधवसेनः- आः दुर्विदग्धहृदये!
रेवासीकरवारिवेपथुवपुर्माहिष्मतीभूपतिः सोऽयं श्रीवनिताविलासवसतेरस्याङ्कशय्यां गता। शम्र्मोल्लाघनधर्मघस्मरमरुन्मैत्रीनिपीतक्लम
स्वेदाम्भःकणिकासपे ! क्षिपशरच्चन्द्रातपास्ताः क्षपाः।।१५।। दमयन्ती-(स्मृतिमभिनीय) (१) अंबहे! एष अंबाए भादुणो तणुओ वक्कसेणो।
माधवसेन:- (सलज्जं परिक्रम्य) चन्द्रमुखि ! कालिन्दीसीकरासारसम्पर्कसततझञ्झानिलीभूतवातपरिरम्भासम्भावितग्रीष्मोष्माणं विजयवर्माणं मथुराधिपतिं पतिमेतमनुमन्यस्व, स्वैरं विहर्तुमुत्कण्ठसे यदि वृन्दावनपावनासु गोवर्द्धनाधित्यकासु।
माधवसेन- अहा! भोली-भाली हृदय वाली दमयन्ति ! नर्मदा के जलकणों में जल से काँपते शरीर वाला यह माहिष्मती का राजा है। शोभित वनिताओं के विलास के पात्र इसकी अङ्कशायिनी बनकर, सुख को घटाने वाली धूप को निगलने वाले पवन की मैत्री से समाप्त किये गए श्रमजन्य पसीने की बूंदों वाली हे दमयन्ती तुम शरद् की चाँदनी वाली रात्रियों को बिताओ।।१५।।
दमयन्ती- (याद करने का अभिनय करती हुई) अरे, यह तो, माँ के भाई का पुत्र अर्थात्, पेरा ममेरा भाई वक्रसेन है।
__ माधवसेन- (लज्जापूर्वक घूमकर) चन्द्रमुखि! यदि वृन्दावन के पवित्र गोवर्द्धन पर्वत के ऊर्ध्व भागों पर इच्छानुसार विहार करने की उत्कण्ठा रखती हो, तो यमुना के जल बूंदों की तेज वर्षा के सम्पर्क से निरन्तर चलने वाली शीतल वायु से आलिङ्गित अतएव ग्रीष्म ताप से रहित मथुरादेश के राजा इस विजयवर्मा को अपना पति बनाओ।
(१) अहो! एषोऽअम्बाया भ्रातुस्तनुजो वक्रसेनः।
टिप्पणी- 'महिष्मती'- बिंध्य और रिक्ष पर्वतों के मध्य में नर्मदा के किनारे पर स्थित
महिष्मती नगरी में हैहय या कलचुरी लोग राज्य करते थे। १. क. प्राप्तः प्र.
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