Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 188
________________ पञ्चमोऽङ्कः १४५ फलमात्मसन्निधानस्य। (सरोषम्) कथं कृपालुरिव विलम्बसे? किञ्च नलस्यासिरसि दयालुश्चेति व्याहतं चरितम्। अपि च धनं प्रेमप्रन्थिं सदयमपि चिच्छेद हृदयं कृपा केयं ब्रूहि स्फुरति हृदि निस्त्रिंश! भवतः? यदद्यापि च्छेत्तुं न सहसि विदर्भेन्द्रतनया नितम्बस्तम्बाङ्कप्रणयिपरिधानांशुकमिदम्।।१३।। आ:! ज्ञातम्, हस्तं सखायमपेक्षते। (दक्षिणहस्तं प्रसार्य सरोषम्) त्वया तावत् पाणिः प्रसभमुपगूढ़ः परिणये त्वमेवास्याः पीनस्तनजघनसौरभ्यसचिवः। ततश्छेत्तुं वासः कृशकृप! कृपाणं कर! घरंस्लुटन्मर्मोत्सङ्गः कथमहह! नोपैषि विलयम्? ।।१४।। काटकर जाता हूँ। (तलवार से) मित्र! पास में रहने का अपना फल दिखाओ। (क्रोध के साथ) दयालु की तरह क्यों विलम्ब कर रहे हो? (क्योंकि) तुम नल की तलवार हो (और) तुम में दया का भाव होना (तुम्हारे) आचरण के विरुद्ध है। और भी गाढ़ स्नेह के बन्धन वाले वक्षस्थल को भी कृपा करके काटने वाले हे तलवार! यह कहो (कि) तुम्हारे हृदय में यह कैसी दया फैल रही है जिसके कारण विदर्भनरेश की पुत्री दमयन्ती के नितम्ब (प्रदेश) पर गुच्छे के रूप में लटकने वाली वस्त्रांचल को काटने में (तुम) अभी समर्थ नहीं हो रहे हो?।।१३।। ओह, समझ गया, (तुम अपने) मित्र हाथ की सहायता चाहते हो। (दाहिने हाथ को फैला कर क्रोध के साथ) विवाह के समय तो तुम्हारे द्वारा जबरदस्ती (प्रिया के) हाथ का आलिङ्गन किया गया (तथा) तुम्हीं इसके स्थूल स्तनद्वय तथा जाँघद्वय के ख्याति (लब्ध) सहचर हो। तब हे निर्दय दक्षिण हस्त! टूटते हुए हृदय वाले नल की प्रिया के नितम्ब के ऊपरी भाग वाले वस्त्र को काटने के लिए कृपाण धारण करते हुए (तुम) क्यों नहीं अन्त को प्राप्त (अर्थात् वस्त्र को दो भागों में विभक्त क्यों नहीं) कर रहो हो? यह आश्चर्य है।।१४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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