Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 200
________________ १५७ षष्ठोऽङ्कः दमयन्ती-(१) एदस्सिं सरे मह निमित्तं ससिलमाणे, गदो भविस्सदि। ता इत्थ गवेसिस्सं। गन्धार:- बाले! मूढाऽसि। यस्त्वां सुप्तामपजहाति, स किं त्वनिमित्तमम्भः समानयति? दमयन्ती-(२) अध मा एवं भण। अहं पाणेहितो वि अज्जउत्तस्स पियदरा। राजा- परित्यागेनाप्यमुना निवेदितं त्वयि भर्तुः प्रेम। दमयन्ती- (परिक्रम्य) (३) कधं एदं सरो, न उण अज्जउत्तो दीसदि। भोदु, एदं चक्कवायघरणिं पुच्छामि। दमयन्ती- कदाचित् इस सरोवर में हमारे लिए जल लाने को गये होंगे। अत: यहीं खोलूंगी। गन्धार- बाले! तुम नासमझ हो। जिसने तुम्हें निद्रा अवस्था में छोड़ दिया, क्या वह तुम्हारे लिए जल लायेगा। ___ दमयन्ती- ऐसा न कहें। मैं तो आर्यपुत्र को प्राण से भी प्यारी हूँ। राजा- इस प्रकार से छोड़ दिये जाने पर भी अपने पति में अनुराग प्रकट करती दमयन्ती- (घूमकर) आर्यपुत्र तो इस सरोवर में भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। अच्छा, तो चक्रवाक की इस पत्नी से पूछती हूँ। - - (१) एतस्मिन् सरसि मम निमित्तं सलिलमानेतुं गतो भविष्यति। तदत्र गवेषयिष्यामि। (२) अथ मैवं भण। अहं प्राणेभ्योऽपि आर्यपुत्रस्य प्रियतरा। (३) कथमेतत् सरो न पुनरार्यपुत्रो दृश्यते? भवतु एतां चक्रवाकगृहिणी पृच्छामि। सखि चक्रवाकदयिते! दयितं किं मम न कथयसि सहसा? प्रियविरहितानां दुःखं प्रत्यक्षं तवानुनित्यम्।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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