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षष्ठोऽङ्कः दमयन्ती-(१) एदस्सिं सरे मह निमित्तं ससिलमाणे, गदो भविस्सदि। ता इत्थ गवेसिस्सं।
गन्धार:- बाले! मूढाऽसि। यस्त्वां सुप्तामपजहाति, स किं त्वनिमित्तमम्भः समानयति?
दमयन्ती-(२) अध मा एवं भण। अहं पाणेहितो वि अज्जउत्तस्स पियदरा।
राजा- परित्यागेनाप्यमुना निवेदितं त्वयि भर्तुः प्रेम।
दमयन्ती- (परिक्रम्य) (३) कधं एदं सरो, न उण अज्जउत्तो दीसदि। भोदु, एदं चक्कवायघरणिं पुच्छामि।
दमयन्ती- कदाचित् इस सरोवर में हमारे लिए जल लाने को गये होंगे। अत: यहीं खोलूंगी।
गन्धार- बाले! तुम नासमझ हो। जिसने तुम्हें निद्रा अवस्था में छोड़ दिया, क्या वह तुम्हारे लिए जल लायेगा। ___ दमयन्ती- ऐसा न कहें। मैं तो आर्यपुत्र को प्राण से भी प्यारी हूँ।
राजा- इस प्रकार से छोड़ दिये जाने पर भी अपने पति में अनुराग प्रकट करती
दमयन्ती- (घूमकर) आर्यपुत्र तो इस सरोवर में भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। अच्छा, तो चक्रवाक की इस पत्नी से पूछती हूँ।
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(१) एतस्मिन् सरसि मम निमित्तं सलिलमानेतुं गतो भविष्यति। तदत्र
गवेषयिष्यामि। (२) अथ मैवं भण। अहं प्राणेभ्योऽपि आर्यपुत्रस्य प्रियतरा। (३) कथमेतत् सरो न पुनरार्यपुत्रो दृश्यते? भवतु एतां चक्रवाकगृहिणी
पृच्छामि। सखि चक्रवाकदयिते! दयितं किं मम न कथयसि सहसा? प्रियविरहितानां दुःखं प्रत्यक्षं तवानुनित्यम्।।६।।
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