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नलविलासे
सहि! चक्कवायदइए! दइयं किं मह न साहसे सहसा ? पियविरहियाण दुक्खं पञ्चक्खं तुज्झमणुनिच्वं । । ६ । ।
राजा - उचितमुक्तवती ।
अनुभूतं न यद् येन रूपं नावैति तस्य सः ।
न स्वतन्त्रो व्यथां वेत्ति परतन्त्रस्य देहिनः । । ७ ।।
दमयन्ती - (विमृश्य ) (१) पियपणयगव्विदा ण पडिवयणं पडिच्छदि । (सरोषम् ) हंजे रहंगिए! केरिसो दे एस पियपणयदप्पो ?
अहं वि पुरवं ईदिस यासं. संपदं 'ज्जेव अणाहा जादा । गन्धारः - (सास्त्रम्) आर्ये! किमेषा तिरश्री वराकी जानाति ? दमयन्ती - (१) ता अन्नत्थ पुच्छिस्सं ।
हे सखि चक्रवाकप्रिये! मेरे प्रिय को क्या (तुम) झट से नहीं कहोगी ( अर्थात् मेरे प्रिय के विषय में तुम झट से जरूर कहोगी, क्योंकि) प्रिय-वियोग वाली रमणियों की पीड़ा का सबसे अधिक साक्षात् अनुभव तुमको है । । ६ । ।
राजा- बिलकुल ठीक कहा है। (क्योंकि) —
जिसने जिस रूप (वस्तु) का अनुभव नहीं किया है, वह उसके रूप को नहीं जानता है, क्योंकि स्वतन्त्र (व्यक्ति) पराधीन व्यक्ति की पीड़ा को नहीं जानता ।। ७ ।।
दमयन्ती - (विचार करके) प्रिय के प्रेम के गर्व से (यह) हमें उत्तर नहीं देती है । (क्रोध के साथ) सखि चक्रवाकि! तुम्हारा प्रिय के प्रेम का यह कैसा अभिमान है ? पहिले मैं भी ऐसी ही थी। अभी अनाथ हो गयी हूँ ।
गन्धार- (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) आर्ये! यह बेचारा पक्षी क्या जानता है ? दमयन्ती - तो दूसरे से पूछती हूँ ।
(१) प्रियप्रणयगर्विता न प्रतिवचनं प्रतीच्छति । सखि रथाङ्गि ! कीदृशस्त एष प्रियप्रणयदर्प: ?
अहमपि पूर्वमीदृश्यासम् । साम्प्रतमेवानाथा जाता।
१. ग. चेव ।
( १ ) तदन्यत्र प्रक्ष्यामि ।
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