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षष्ठोऽङ्कः (विलोक्य संस्कृतमाश्रित्य च) मातः कुञ्जरपलि! तात हरिण! भ्रातः शिखण्डिन्! कृपां कृत्वा ब्रूत मनाक् प्रसीदत कृतो युष्माकमेषोऽञ्जलिः। दृष्टः क्वापि गवेषयनिह वने भीमात्मजां नैषधो
भूपालः सरणिं सृजनविरलैर्बाष्पोर्मिभिः पङ्किलाम्।।८।। पिङ्गलक:-(१) अज्जे! कीस उणं तेण पदिणा तुमं पडिचत्ता सि? दमयन्ती- (सबाष्पम्) (२) अज्ज! दोसं न याणामि।
अप्पा समप्पिओ पढमदंसणे वणमिणं च सह चलिया। सुवणेवि पइं अन्नं न महेमि तहा वि परिचता।।९।।
(देखकर और संस्कृत भाषा का आश्रय ले कर) माँ हस्तिपत्नि! पिता मृग! भाई मयूर! आप लोगों के लिए (मेरे द्वारा) जोड़े गये इस प्रणामाञ्जलि से प्रसन्न होकर कृपा करके कुछ कहें कि इस वन में भीमनरेश की पुत्री दमयन्ती को खोजते हुए नेत्रों से निरन्तर गिरने वाली अश्रु धाराओं से मार्ग को गीला करने वाले निषधनरेश नल को कहीं (आप लोगों ने) देखा है।।८।।
पिङ्गलक- आयें! फिर उस पति से क्या, जिसके द्वारा तुम छोड़ दी गई हो? दमयन्ती- आर्य! मैं दोष नहीं जानती हूँ।
प्रथम दर्शन में ही आत्मा को (उन्हें) सौंपकर तथा इस वन में साथ चलती हुई (यद्यपि मैं) छोड़ दी गई हूँ, फिर भी (मैं) स्वप्न में भी दूसरे पति की इच्छा नहीं करती हूँ।।९।।
(१) आर्ये! किं पुनस्तेन पत्या त्वं परित्यक्ताऽसि? (२) आयें! दोषं न जाने।
आत्मा समर्पितः प्रथमदर्शने वनमिदं च सह चलिता।
स्वप्नेऽपि पतिमन्यं न काङ्क्षामि तथापि परित्यक्ता।।९।। अथवा प्रतिहतममङ्गलम्। नाहमार्यपुत्रेण परित्यक्ता, किन्तु मम दुःखविनोदनाथ परिहासः कृतः।
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