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नलविलासे
अहवा पडिहदममङ्गलं । नाहं अज्जउत्तेण परिचत्ता, किं तु मह दुक्खविणोयणत्थं परिहासो कदो ।
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(पुनराकाशे)
(१) एगागिणी अहं भीलुगा य निम्माणुसं च वणमिणमो । ता एहि एहि पिययम ! अलाहि परिहासकीलाए । । १० ।। (२) किं मं वाहरसि ? एस आगच्छामि । ( सरभसं धावति ) गन्धारः - (सबाप्पम् ) आयें ! प्रतिश्रुतिरियम् । दमयन्ती - ( सपदि स्थित्वा) (३) अज्ज! एसा पडंसुया? गन्धारः - एषा प्रतिश्रुत् ।
अथवा अमङ्गल का नाश हो। मैं आर्यपुत्र के द्वारा छोड़ी नहीं गई हूँ, किन्तु मेरे कष्ट (पीड़ा) को दूर करने के लिए आर्यपुत्र ने (हमसे ) हँसी की है।
( पुन: आकाश में)
मैं अकेली हूँ और डरपोक हूँ तथा यह वन मनुष्य से रहित है, अतः हे स्वामिन्! आओ, आओ, हँसी- मजाक का खेल बहुत हो गया । । १० ।।
( प्रतिध्वनि को सुनकर आकाश में)
क्या, मुझे बुला रही हो? यह मैं आ रहा हूँ। (शीघ्रता से दौड़ती है ) (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) आर्ये! यह तो प्रतिध्वनि है।
गन्धार
दमयन्ती - ( शीघ्रता से रुककर ) आर्य ! यह प्रतिध्वनि है ?
गन्धार - हाँ, यह प्रतिध्वनि है।
दमयन्ती - ( अपनी परछाई देखकर, अट्टहास करती हुई जोर से) भाग्य से आर्यपुत्र ! भाग्य से, तुम देख लिए गये हो, तुम देख लिये गये हो, अब कहाँ जा रहे हो ? ( पुनः शीघ्रता से दौड़कर के सीत्कार ध्वनि से रुककर गन्धार के प्रति अश्रुपूर्ण
(१) एकाकिन्यहं भीरुका च निर्मानुषं च वनमिदम् ।
तदेहि एहि प्रियतम ! अलं परिहासक्रीडया । । १० ।।
(२) किं मां व्याहरसि ? एष आगच्छामि ।
(३) आर्य! एषा प्रतिश्रुतिः ?
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