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षष्ठोऽङ्कः
१६१ दमयन्ती- (१) (स्वप्रतिच्छायामालोक्य, सहासमुच्चैःस्वरम्) दिट्ठिया दिट्ठिया अज्जउत्त! दिट्ठो सि दिट्टो सि कहिं दाणिं गच्छसि? (पुनः सरभसं धावित्वा ससीत्कारं च स्थित्वा गन्धारं प्रति सबाप्पम्) अज्ज! दब्भंकुरेहिं विद्धो मे चलणो। ता अवणेहि एदो अहवा चिट्ठ सयं ज्जेव अवणिस्सं। नाहं परपुरिसं फुसेमि।
राजा- (सरभसमुत्थाय) भगवति! पतिव्रते! नमस्ते।
जीवलक:- देव! किमिदम्? सिंहासनमलङ्क्रियताम्। ननु कूटनटघटनेयम्।
(राजा सव्रीडमुपविशति) नल:- (सदुःखात्मगतम्)
श्रुते! बाधिर्यं त्वं कलय बिभृतां किञ्च नयने! युवामन्धीभावं द्रुतमनगदङ्गारविषयम्। शृणोम्यस्यास्तारं न रुदितमहं येन तदिदं
न वा पश्याम्येतां विरहहरिणीं हारिललिताम्।।११।। नेत्रों से) आर्य! दर्भाङ्करों से मेरा पैर घायल हो गया है। अत: इसे निकाल दो अथवा ठहरो, मैं स्वयं ही निकाल लूँगी। मैं अन्य पुरुष का स्पर्श नहीं करूँगी।
राजा- (शीघ्रता से उठकर) भगवति पतिव्रते! तुम्हें नमस्कार है।
जीवलक- महाराज! यह क्या? सिंहासन को सुशोभित करें। यह तो कुशल नटों की रचना है।
(राजा लज्जित सा बैठ जाता है।) नल- (दुःख के साथ अपने मन में)
ऐ दोनों कान! तुम शीघ्र बधिर हो जाओ, ऐ दोनों नेत्र! तुम शीघ्र अन्धत्व के भाव को प्राप्त हो जाओ, जिससे दुःख का विषयभूत दमयन्ती का जोर से रुदन करना तथा विरहव्याकुल दमयन्ती की मनोहारी लीला को (हम) न सुन सकें और न देख ही सकें।।११।।
(१) दिष्ट्या! दिष्ट्या! आर्यपुत्र! दृष्टोऽसि दृष्टोऽसि, कुत्रेदानी गच्छसि? आर्य! दर्भाङ्कुरैर्विद्धो मे चरणः। तदपनयेतोऽथवा तिष्ठ, स्वयमेवापनेष्यामि। नाहं परपुरुषं स्पृशामि। १. ख. ग. गच्छिसि।
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