Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 224
________________ १८१ सप्तमोऽङ्कः (ततः प्रविशन्ति यथानिर्दिष्टाः सर्वे) दमयन्ती- (सास्रम्) (१) कपिञ्जले! पज्जालेहि जलणं जेण मे दुक्खमोक्खं करेदि। ___ कपिञ्जला-(२) भट्टिणि! विलंबेहिं विलंबेहिं कित्तियाइं पि दियहाई, जाव भट्टा सव्वं सुद्धिं लहेदि। न हु पहियजणसंकहाओ अवितहाओ हवंति। दमयन्ती-(३) कपिञ्जले! अलाहि विलंबेण। न हु एदं असुदपुव्वं वत्तं सुणीय पाणे धरे, सक्केमि। अवि य न हवंति अलियाओ असुहसंसिणीओ वत्ताओ। नल:- (स्वगतम्) का पुनरशुभशंसिनी वार्ता? भवतु पृच्छामि। (उपसृत्य दमयन्तीं) आर्ये! किमर्थं त्रैलोक्याद्भुतभूतरूपसम्पत्तिपावनं वपुरात्मनो बहावाहुतीक्रियते? विरम विरमास्मादध्यवसायात्। (पश्चात् यथानिर्दिष्ट सभी प्रवेश करते हैं) दमयन्ती- (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) कपिञ्जले! अग्नि जलाओ, जो मेरा दुःख दूर करेगा। कपिञ्जला- स्वामिनि! रुको कुछ दिन रुको जब तक कि स्वामी सभी प्रकार की पवित्रता को प्राप्त कर लेते हैं। निश्चय ही पथिकजन की कथायें सत्य नहीं होती हैं। दमयन्ती- कपिञ्जले! देर करने से क्या लाभ। निश्चय ही नहीं सुनने योग्य इस कथा (वृत्तान्त) को. सुनकर मैं जीवन धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। और भी, अशुभ को प्रकाशित करने वाली कथायें असत्य नहीं होती हैं। नल- (अपने मन में) तो फिर अशुभ को प्रकाशित करने वाली वार्ता क्या है? अच्छा, पूछता हूँ। (समीप जाकर दमयन्ती से) आर्ये! तीनों लोक में अद्भुत रूप (१) कपिञ्जले! प्रज्वालय ज्वलनं येन मे दुःखमोक्षं करोति। (२) भत्रि! विलम्बस्व विलम्बस्व कियतोऽपि दिवसान् यावद् भर्ता सर्वां शुद्धिं लभेत। ___(३) कपिञ्जले! अलं विलम्बेन। न खल्वेतदश्रुतपूर्वं वृत्तं श्रुत्वा प्राणान् धारयितुं शक्नोमि। अपि च न भवन्त्यलीका अशुभशंसिन्यो वार्ताः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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