Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 231
________________ १८८ नलविलासे किञ्च छिन्नेषु रावणे तुष्टः शम्भुर्दशसु मूर्द्ध। शतेऽपि शिरसां छिन्ने, दुर्जनस्तु न तुष्यति।।११।। कलहंस:- किमिदं विषादमूर्छालेनानौचित्यपिच्छलं विपठ्यते देवेन। न खलु सतामग्रणीर्निषधाधिपतिः प्रलयेऽपि खलो भवितुमर्हति। नल:- देव्या अपि दाक्षिण्यमधिमनसमनादधानः कथं नास्मि खलः? परसम्पत्समुत्कर्षद्वषो दाक्षिण्यहीनता। द्वयमेतत् खलत्वस्य प्रथमं प्राणितं स्मृतम्।।१२।। अलं कृत्वा वा दुष्टचरितस्मरणम्। कथय तावत् केनेदममङ्गलमावेदितम्? कलहंसः- देव! एकेन वैदेशिकेन भश्मकनाम्ना खञ्जकुण्टेन मुनिना। और, भगवान् शंकर(तो) रावण के दस सिर कटने पर (ही) प्रसन्न हो गये, किन्तु दुर्जन (तो) सौ सिर के कटने पर भी प्रसन्न नहीं होता है।।११।। __ कलहंस- खिन्नताजन्य मूर्छा के कारण अनौचित्यपूर्ण यह क्या कह रहे हैं राजन्! निश्चय ही निषधदेश के स्वामी आप सज्जनों में अग्रगण्य हैं, (क्योंकि) आप तो प्रलय काल में भी दुर्जन नहीं हो सकते हैं। नल- देवी दमयन्ती की शिष्टता को भी अपने हृदय में नहीं धारण करने वाला मैं दुर्जन कैसे नहीं हूँ? दूसरे की सम्पत्ति की वृद्धि से ईर्ष्या करना (और) उदारता से रहित होना ये दो दर्जनता के कारण हैं (उक्त दोनों में से) मैंने पहले (अर्थात् शिष्टता को नहीं जानने) का (ही) प्रत्यास्मरण किया।।१२।। ___ अथवा दुश्चरित का याद करना बेकार है। तो यह कहो (कि) किसने इस अमङ्गल की सूचना दी? कलहंस- देव! एक परदेशी भस्मक नामवाले लंगड़े और विकलांग मुनि ने। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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