Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 223
________________ १८० नलविलासे राजा-(सविचिकित्समात्मगतम्) अहो! सर्वातिशायी द्विजन्मनां निसर्गसिद्धो लोभातिरेको यदयमन्त्येऽपि वयसि वृथा वृद्धो निधनधनप्रतिग्रहान्न विरमति। नल:- राजस्व सिद्ध्यै। ब्राह्मणः- स्वस्ति महाभागाय (इत्यभिधाय मन्दं मन्दं निष्क्रान्तः) राजा- बाहुक! विप्रलब्धाः केनापि वयं स्वयंवरसमालानेन। तद् यावत् कोऽप्यस्मानुपलक्षयति तावदित एव स्थानानिवर्तय पताकिनम्। नल:- देव! क्षणमस्मिन्नेव स्थाने श्रमोऽतिवाह्यताम्, यावदहमग्रतो गत्वा सम्यग् निर्णयामि। (राजा तथा करोति) (परिक्रम्य विलोक्य) कथमियं देवी प्राणपरित्यागसमयोचितनेपथ्या चिताभ्यणे कपिञ्जलया सह वर्तते! अयमपि कलहंसोऽसावपि खरमुख इयमपि मकरिका। राजा- (आश्चर्यचकित सा अपने मन में) ओह! ब्राह्मणों का स्वभावत: सिद्ध लोभाधिक्य सभी का अतिक्रमण करने वाला है, जिसके कारण मरणकालीन दान के धन को ग्रहण करने से इस वृद्धा अवस्था में भी विरत नहीं होता है। नल- कार्यसिद्धि (धन प्राप्ति) के लिए (आप) जाँय। ब्राह्मण- मान्यवर का कल्याण होवे, (यह कहकर धीरे-धीरे निकल जाता है)। राजा- बाडुक! स्वयंवर में बुलाने के बहाने हम किसी से ठगे गये हैं। अत: जब तक हमें कोई देख न ले उससे पहले इस स्थान से ही अपनी नगरी लौट चलें। नल- देव। कुछ देर इसी स्थान पर थकान को दूर करें, जब तक कि मैं आगे जाकर इस पर ठीक-ठीक निर्णय लें। (राजा वैसा ही करता है) (घूमकर तथा देख करके) क्यों यह देवी (दमयन्ती) प्राणत्याग के समय के अनुकूल वस्त्र पहनकर कपिञ्जला के साथ चिता के समीप विद्यमान है? यह कलहंस, खरमुख और यह मकरिका भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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