Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 221
________________ १७८ नलविलासे विश्रान्ताखिलगीतवाद्यविधयः सङ्गीतशालाभुवो वार्ताक्षिप्तजनस्य पुञ्जिभिरितः पर्याकुला वीथयः।।४।। राजा-(विलोक्य) बाहुक! यथाऽयं मन्दमन्दरुदितः ससंरम्भमितस्ततः परिधावति पौरलोकस्तथा जाने सम्प्रत्येव कोऽपि विपत्स्यते। इतः प्रारभ्यन्ते निचितचितयः पश्य भृतकैः प्रयाति प्रत्याशं विषमतमतूर्यध्वनिरितः। द्विजन्मानोऽप्येते निधनधनविच्छेदचकिताः ससंरम्भ धावन्त्यपरिचितशूकास्तत इतः।।५।। नल:- देव! एतं वृद्धब्राह्मणं पृच्छामि। (ततः प्रविशति गृहीतयष्टिर्गमनाकुलचेता वृद्धो ब्राह्मणः) (उपसृत्योच्चैःस्वरम्) आर्याय ब्राह्मण:- नियोजयतु यजमानः। एकत्रित (हो रहे) हैं। संगीतशाला में होने वाली समस्त गीति और वाद्ययन्त्रों का बजना बन्द हो चुका है (तथा) इधर परस्परवार्ता करते हुए लोगों की भीड़ से गलियाँ व्यस्त (भरी हुई ) हैं।।४।। राजा- (देख करके) बाहुक! जिस तरह से धीरे-धीरे रोते हुए नगर वासी शीघ्रता के साथ इधर-उधर दौड़ रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि कोई विपत्ति में पड़ा है। देखो, इधर नौकर-चाकर लकड़ी को एकत्रित कर चिता बना रहे हैं। इधर से तुरही (नामक वाद्य-विशेष) की अत्यन्त भयावह ध्वनि प्रत्येक दिशा में फैल रही है, करुणा से अनभिज्ञ ये ब्राह्मण लोग भी किसी की मृत्यु के कारण प्राप्त होने वाले धन के छूट जाने के भय से इधर-उधर शीघ्रता से दौड़ रहे हैं।।५।। नल- राजन्! इस वृद्ध ब्राह्मण से पूछता हूँ। (पश्चात् लाठी पकड़े हुए जाने के लिए व्याकुल वृद्ध ब्राह्मण प्रवेश करता है) (पास जाकर जोर से) आर्य, आर्य! ब्राह्मण- यजमान आज्ञा करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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