Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 220
________________ १७७ सप्तमोऽङ्कः त्यक्ता यद् विपिने वनेचरघने निद्रालुरेकाकिनी तत् त्यक्त्वापि न जीवितं रहितवानस्मि प्रियप्राणितः। एतेनाद्भुतकीर्तिमुन्नमयता विस्फूर्जितेनोर्जितं वक्रं दर्शयितुं श्वपाकचरितस्तस्याः कथं स्यां सहः?।।२।। अपि च अपकृत्योपकार्येषु ये भवन्त्यर्थिनः पुनः। तेषु मन्ये मनुष्यत्वं विधेर्वार्धकविक्रिया।।३।। राजा- बाहुक! क्वचिदपि प्रदेशे पताकि विधृत्य माश्रिममपनयामः। नल:- (विलोक्य साशङ्कम्) देव! किमिदं स्वयंवरविधिविरुद्धमतिकरुणमालोक्यते? तथाहि आक्रन्दः श्रुतिदुर्भगः प्रतिदिशं बाष्पागण्डस्थलो लोकः सर्वत एष वेषघटना पौरेषु शोकोमुखी। देवी (दमयन्ती) को देखूगा, अत: हर्षाधिक्य से मैं रोमाञ्चित शरीर वाला हूँ। (पुन: खेद के साथ) अथवा हिंसक जीवों से व्याप्त वन में जो अकेली छोड़ी गई उस (दमयन्ती) ने जीवन का त्याग नहीं भी किया, (तो भी मैं उस) प्रियप्राणी से रहित हो गया हूँ। (तथा) इस (दमयन्ती के) त्याग से बढ़ने वाली अपकीर्ति से सुन्दर मुख को उसको दिखाने में हम चाण्डाल कैसे समर्थ (हो सकते) हैं? ।। २।। उपकार्य में अपकार (अर्थात् जो करना चाहिये उसे न) करके पुनः जो लोग याचना करने वाले होते हैं,.मैं तो यही मानता हूँ कि उसमें मनुष्यत्व का होना विधि का वार्धक्य अवस्थाजन्यदोष (ही) है।।३।। राजा- बाहुक! किसी स्थान पर छत्र का आश्रय कर हम मार्गजन्य थकान दूर करते हैं। नल- (देखकर सन्देह के साथ) देव! स्वयंवर अनुष्ठान के विपरीत अत्यन्त कष्टकारक यह क्या देख रहे हैं? जैसा कि प्रत्येक दिशा में श्रवणेन्द्रियों के लिए अत्यन्त-कष्टदायक करुणा-विलाप (तथा) अश्रुओं से भींगे कपोल प्रदेश वाले पूर्णत: शोकाकुलजन नगर में आवास द्वार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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