Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 199
________________ १५६ नलविलासे नल:- (ससम्भ्रममात्मगतम्) किमेषाऽभिधास्यति? दमयन्ती- (१) निशढाहिवदी नलो। नल:- (स्वगतम्) आः पाप! नलहतक! विलीयस्व। किमतः परं प्राणिषि? ध्रुवमुपरता देवी। कथमपरथा नाट्येषु तत्प्रतिबिम्बन व्यवहारः। पिङ्गलक:- (सरोषम्) (२) शिशिले! किं तेण कूलकम्मणा चंडालेण कलिस्ससि? ता सत्थवाहपासं एहि। राजा- (सहर्षम्) साधु भो भरत! साधु! स्वप्नेऽप्यदृश्यवदनोऽसौ येनेयमेकाकिनी परित्यक्ता। नल:- (सरोषमिव) अस्पृश्योऽश्रोतव्योऽग्राह्यनामा चेत्यप्यभिधीयताम्। गन्धारः- तर्हि गवेषय क्वापि। नल- (घबराहट के साथ अपने मन में) यह क्या कहेगी? दमयन्ती- निषधदेश के राजा नल। नल- (मन ही मन) अरे पापी! पुरुषों में नीच नल! विलीन हो जाओ। इसके बाद भी क्या देवी जी रही है? निश्चय ही देवी (दमयन्ती) मर गई है। अन्यथा अभिनय में उसकी छाया के द्वारा (इसका) आचरण कैसे (सम्भव) है। पिङ्गलक- (क्रोध के साथ) आयें! उस कठोर कर्म करने वाले चाण्डाल को क्या करोगी? अतः सार्थवाह के पास चलो। राजा- (हर्ष के साथ) बहुत अच्छा हे नट! बहुत अच्छा, जिसने इसको जंगल में छोड़ा है, उसका मुख तो स्वप्न में भी देखने योग्य नहीं है। नल- (क्रोधित हुये की तरह) यही नहीं, नहीं छूने योग्य, नहीं सुनने योग्य और नहीं नाम लेने योग्य भी कहिये। गन्धार- तो कहीं खोजो। (१) निषधातिपतिनलः। (२) शिशिरे! किं तेन क्रूरकर्मणा चण्डालेन करिष्यसि? तत्सार्थवाहपार्श्वमेहि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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