Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 216
________________ षष्ठोऽङ्कः न तथा वृत्तवैचित्री श्लाघ्या नाट्ये यथा रसः । विपाककभ्रमप्याम्रमुद्वेजयति नीरसम् ।। २३ ।। वर्तते। राजा - (स्मृत्वा) बाहुक ! 'देवि! नाहमात्मनो विघातेन कलङ्कयितव्यः' इत्यभिदधानो नल इव लक्ष्यसे । तत् कथय परमार्थं समर्थय नः प्रार्थनाम् । कस्त्वमसि ? किमर्थं च दुःस्थावस्थः ? (प्रविश्य) प्रतीहारः- देव! विदर्भाधिपतिप्रेषितो भद्राभिधानः पुरुषो द्वारि राजा - ( ससम्भ्रमम्) शीघ्रं प्रवेशय । प्रतीहार:- यदादिशति देवः १७३ ( इत्यभिधाय निष्क्रान्तः । प्रविश्य भद्रः प्रणमति) राजा - भद्र! किमर्थं भवत्प्रेषणेनास्मान् विदर्भाधिपतिः पवित्रितवान्? अभिनेय काव्य में जिस प्रकार रस प्रशंसनीय है उस प्रकार से कथावस्तु वैचित्र्य नहीं, (क्योंकि) पूर्ण रूप से नहीं हुआ सुन्दर भी किन्तु नीरस आम उद्वेग ही उत्पन्न करने वाला है ।। २३ ।। राजा - ( स्मरण करके) बाहुक ! 'देवि! आत्मवध के द्वारा हमें कलङ्कित न करें' इस प्रकार से कहते हुए नल की तरह प्रतीत होते हो । अतः हमारी प्रार्थना को सफल करो और वास्तविकता को कहो। तुम कौन हो ? किस हेतु इस विपत्तिग्रस्त अवस्था को ( प्राप्त किये हो ) ? ( प्रवेश कर ) प्रतीहार - महाराज ! विदर्भनरेश द्वारा भेजा गया भद्र नामक पुरुष द्वार पर स्थित राजा - ( वेग के साथ) शीघ्र प्रवेश कराओ। प्रतीहार - महाराज की जैसी आज्ञा । (यह कहकर निकल जाता है । पश्चात् प्रवेश करके भद्र प्रणाम करता है ) राजा - भद्र! विदर्भाधिपति ने किस हेतु आपको भेजकर हमें पवित्र किया ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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