Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 212
________________ षष्ठोऽङ्कः अस्यां कालकरालवकाकुहरे प्रस्थापितायां हरे! किं शौर्यं भवतोऽतिशायि भविता को वा बुभुक्षाक्षयः।।१९।। (विलोक्य) कथं साम्ना न विरमति? भवतु दानप्रयोगं दर्शयामि। अथ तीव्रक्षुधा सत्यमौचित्यमतिवर्तते। मुञ्चैनां तर्हि मां भुक्ष्व पतितोऽस्मि तथा(वा)ऽग्रतः।।२०।। ____ (इति रङ्गभूमौ पतितुमिच्छति) राजा- अलमलमतिसम्भ्रमेण। बाहुक! ननु नाट्यमिदम्। नल:- (सलज्जमात्मगतम्) किमिदं मया शोकव्याकुलेन व्यवसितम्? भवतु। (प्रकाशम्) देव! करुणारसातिरेकेण विस्मारितोऽस्मि। दमयन्ती- (उपसृत्य कण्ठीरवं प्रति) मां वा प्रीणय नैषधस्य नृपतेः काञ्चित् प्रवृत्तिं दिश नात्मानं यदि वा दिवाकरकरैभृष्टेन देहेन मे। (खून) से युक्त शरीरवाली वियोग से व्याकुल अकेली स्त्री (को मार देने) से क्या आपकी भूख शान्त हो जायेगी? अथवा आपके पराक्रम में कोई वृद्धि होगी?।।१९।। (देखकर) साम प्रयोग (शान्ति उपाय) से (वह) क्यों नहीं विरत होता है? अच्छा, तो दान का प्रयोग दिखाता हूँ। यदि भूख की उत्कट क्षुधा सत्य के औचित्य का उल्लंघन (अतिक्रमण) कर रही है, तो मैं तुम्हारे आगे गिरता हूँ मुझे खा लो और इस (दमयन्ती) को छोड़ दो।।२०।। (यह कहकर रङ्गमञ्च पर गिरना चाहता है) राजा- अधिक घबड़ाहट व्यर्थ है। बाहुक! यह तो अभिनय है। नल- (लज्जित होकर अपने मन में) शोक से व्याकुल मैंने यह क्या किया? अच्छा, (प्रकट में) महाराज! करुण रस के आधिक्य से मैं भुला दिया गया हूँ। दमयन्ती- (पास जाकर सिंह से) हे सिंह! निषधाधिपति नल के किसी समाचार का निर्देश करते हुए या तो मुझे प्रसन्न करो अथवा मेरे सूर्य की किरणों से भुने हए शरीर से स्वयं को, यही दो मार्ग टिप्पणी- 'हरे' --- 'केसरी हरिः' इत्यमरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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