Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 205
________________ नलविलासे गन्धारः- (सबाप्पम्) अस्याः क्षोणि! विधेर्वशादभिनवां संशिक्षयन्त्यास्त्वयि भ्रान्तिं किं चरणौ चिरादतिखरैर्दाकुरैविध्यसि? व्यापत्तौ वनितासु कर्तुमुचितस्ते पक्षपातः स्त्रियाः पारुष्यं पुरुषः स नाम बिभृतां क्षोणीपतिर्नैषधः ।।१२।। सपर्ण:- (सरोषमुत्थाय) आः! शैलूषापसद! येनेयं पतिव्रता गहने वने निर्निमित्तमग्राह्यनामा चाण्डालेन परित्यक्ता, तमपि पापीयांसं क्षोणीपतिमभिदधासि? राजा- अमात्य! स्वस्थो भव, नाटकमिदम्। (सपर्ण: सलज्जमुपविशति) नल:- (राजानं प्रति) एनामरण्यभुवि मुक्तवतोऽपि दोषो न्मेषो नलस्य न मनागपि किन्तु तेषाम्। गन्धार- (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) हे वसुन्धरे! प्रारब्धवश देर से नवीन भ्रमण करने की शिक्षा प्राप्त करती हुई तुम्हारे ऊपर पड़ने वाली दमयन्ती के पैरों में तुम अत्यन्त कठोर कुशाङ्करों को क्यों चुभा रही हो, (क्योंकि) स्त्रियोंपर आई हुई विपत्ति में उसका पक्षपाती होना ही तुम्हारे लिए उचित है और कठोरता को तो, वह पुरुष धारण करे, जो निषधदेश का राजा नल है।।१२।। सपर्ण- (क्रोध के साथ उठकर) अरे नट नीच! जिस, नाम नहीं लेने योग्य चाण्डाल, के द्वारा घने वन में यह पतिव्रता छोड़ दी गई, उस पापी (दुष्टात्मा) को भी भूपति कह रहे हो? राजा- सचिव! प्रसन्न होओ, यह तो नाटक है। (सपर्ण लज्जित होकर बैठ जाता है) नल- (राजा के प्रति) ___ इस (दमयन्ती) को जंगल की भूमि पर छोड़ते हुए भी नल का अंशमात्र में दोष नहीं है, अपितु उन लोगों का दोष है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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