Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 187
________________ १४४ नलविलासे कर्म । (उत्थातुमिच्छति । साशङ्कम् ) कथमिति निबिडमापीड्य मामियं विरहकातरा शेते । तपस्विनी मामवधारयति मुखमधुरमवसानदारुणं कालकूटफलम्। सरले! मुञ्च मुञ्च त्रिजगत्परितापावापहेतुः सर्वभक्षी नलरूपेणानलोऽस्मि । अपि च भर्तृवत्सले! विश्वासघातिनमकृत्यकरं श्वपाकं मा मां स्पृश श्लथय दो: परिरम्भमुद्राम् । अस्मादृशामकरुणैकशिरोमणीनां सर्वसहाऽपि विरमत्यनुषङ्गपापात् ।। १२ । । (शनैर्दो:परिरम्भमुन्मुच्य साशङ्कम् ) कथमम्बरेण परिवेष्टितोऽस्मि । (विहस्य) अयि यनपरे ! किमीदृशैः प्रयत्नैरुपरुध्यति क्रूरकर्मपटीयान् नलः ? यत्रिजगद्बन्धनेन प्रेम्णा न बध्यते तस्य मृणालतन्तुपेशलमम्बरं किमादधीत? एष तरवारिणा च्छित्त्वा गच्छामि । ( कृपाणं प्रति) सखे! दर्शय चाण्डालवंश की शोभा बढ़ाने वाले कर्म का आरम्भ करता हूँ। (उठने के लिए चाहता है। आशङ्का के साथ) वियोग से डरने वाली यह दमयन्ती (मेरा) गाढ़ आलिंगन करके किस प्रकार सो रही है। यह दमयन्ती नहीं जानती है ( कि मैं तो उस ) विषफल की तरह हूँ जो, मुख में (तो) मीठा (लगता) है ( पर उसका ) अन्त भयानक (होता) है। मुग्धे ! छोड़ो मुझे छोड़ो, मैं तो तीनों लोक के ताप का मूल कारण सभी कुछ खा लेने वाला शरीरधारी नल रूप में अनल (अग्नि) हूँ। और भी, पतिप्रिये ! विश्वास को तोड़ देने वाला नहीं करने योग्य कर्म को करने वाले चाण्डाल मुझे (नल को ) (तुम) मत छूओ (और) भुजाओं के आलिङ्गन बन्धन को ढीला कर दो। (क्योंकि) अकृत्य कर्म को करने वाले हमारे जैसे (अर्थात् नल) के सम्पर्कजन्य पाप ( के भय) से पृथ्वी भी विरत होती (अर्थात् अलग होती है ।। १२ ।। (धीरे से दोनों बाहु के आलिङ्गन को छुड़ाकर सन्देह के साथ) अरे, वस्त्र के द्वारा चारों तरफ से लपेट दिया गया हूँ। (हँसकर) हे, अपने प्रयत्न में चतुर, दमयन्ति ! क्या इस प्रकार के प्रयत्न के द्वारा कठोर कर्म करने में प्रवीण नल रुक सकता है ? जो तीनों लोक को बाँधने वाले प्रेम (के बन्धन) से नहीं बँधता उसको कमल नाल सदृश कोमल तन्तु से बना वस्त्र क्या बाँध सकता है ? इस तलवार से (वस्त्र को ) टिप्पणी- 'सर्वंसहा' 'सर्वंसहा वसुमती वसुधोर्वी वसुंधरा' इत्यमरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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