Book Title: Nalvilasnatakam
Author(s): Ramchandrasuri
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 192
________________ पञ्चमोऽङ्कः १४९ व्रजाम्यहम्। देवि! तदानीं चरममाभाष्यसे । वनदेवतास्ते शरणम् । एष पापिष्ठ श्रेष्ठो निस्त्रिंशशिरोमणिः परवञ्चनाचतुरः क्षत्रियापदेशेन ब्रह्मराक्षसः क्रूरकर्मा चाण्डालचक्रवर्ती नलः प्रयाति । (इत्यभिधाय पूत्कुर्वन् निष्क्रान्तः) (ततः प्रविशति पुरुष : ) पुरुषः- (१) अज्ज! एदं शिशिलशलिलपूलिदं शलं ता एहि सत्यवाहस्स कहेमि (परिक्रम्य विलोक्य च ) कथं इत्थिका! अम्मो ! अदिविणी! हीमाणहे कथं अल्लणे एगागिणी ( सदयम् ) मां एदं केवि भुक्खाकलाले लक्खसे भिक्खसे रा' खाए। ता उत्थावए हगे। अज्जे अज्जे! उत्थेहि उत्थेहि (सरोषम् ) कहं अइनिद्दाए मुदा विव न सुणेदि शद्दं ? भोदु, उप्पाडिय एवं अन्नत्थ नएमि । ( तथा कृत्वा निष्क्रान्तः ) ।। पञ्चमोऽङ्कः ।। हैं। यह पापियों में श्रेष्ठ, निर्दयियों में अग्रगण्य, दूसरों को ठगने में चतुर, क्षत्रियों में अधम ब्रह्मराक्षस, कठोर कर्म करने वाले चाण्डालों का सम्राट् नल जा रहा है। ( यह कहकर पाद विक्षेप करते हुए निकल जाता है) ( पश्चात् पुरुष प्रवेश करता है ) पुरुष - आर्य! यह शीतल जल से भरा सरोवर है, अत: आओ झुण्ड के नेता को कहते हैं। अरे यह क्या! अहा, अत्यन्त रूपवती है। ओह, इस जंगल में अकेली क्यों है ? इसे कोई भूख से जम्हाई लेता हुआ मनुष्य को खाने वाला राक्षस अथवा अन्य कोई हिंसक जीव कहीं खा न जाय ? इसलिए मैं इसे उठाता (निद्रा से जगाता ) हूँ। आयें! आयें! उठो, उठो । गाढ़ निद्रा में मरे हुये की तरह यह मेरी आवाज क्यों नहीं सुन रही है? अच्छा, तो इसे (हाथ से उठाकर ही यहाँ से दूसरी जगह ले जाता हूँ। (वैसा करके निकल जाता है) ।। पञ्चम अङ्क समाप्त । । (१) आर्य! एतत् शिशिरसलिलपूरितं सरः, तदेहि सार्थवाहाय कथयामि । कथं स्त्री!! अहो ! अतिरूपवती, हा ! कथमरण्ये एकाकिनी। मैनां कोऽपि बुभुक्षाकरालो राक्षसो भक्षको वा खादयेत् ( ? ) । तदुत्थापयाम्यहम् । आर्ये! आर्ये! उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ । कथमतिनिद्रया मृतेव न शृणोति शब्दम् ? भवतु, उत्पाट्यैतामन्यत्र नयामि । १. क. रक्खोए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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