Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 3
________________ द्वितीयसर्गः एव पक्षतेः पझमूलस्य मध्ये इत्यधिमध्यम् / अव्ययो० ) ऊर्ध्वगा ऊर्ध्वगामिनी जङ्घा प्रसूता ( कर्मधा० ) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तवा (ब० वी०) एकतमेन एकेन अङ्क्षिा चरणेन द्रुतं शीघ्रं यथा स्यात्तथा कण्डूयितः उल्लिखित घृष्ट इति यावत् मौलिः शिरः ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० वी०) सन् आलयम् आवास नीडमित्यर्थः शिश्रिये आश्रितवान् जगामेति यावत् // 3 // व्याकरण-स्खलनम् /स्खल् + ल्युट ( भावे ) / ऊर्ध्व गच्छनीति ऊर्ध्व+ गम् +डः। एकतमेन एक+तमप ( स्वाथें ) / कण्डूयित-/कण्डू+यक् + क्तः ( नामधा०) / प्रालयः बालीयन्ते प्राणिनोऽत्रेति आ+/ली+अच् ( अधिकरणे ) / शिश्रिये/श्रि+लिट् / अनु०-यह ( हंस ) ( राजा के हाथ से ) छुटते ही डैनों के भीतर जाँच उठाकर एक पैर से झट सिर को खुजलाता हुआ ( अपने ) आवास में चल दिया // 3 // टिप्पणी-यहाँ भी पक्षियों का यथावत् स्वभाव वर्णन करने से स्वमात्रोक्ति है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। स गरुद्वनदुर्गदुर्ग्रहान्कटु कीटान्दशतः सतः क्वचित् / नुनुदे तनुकण्डु पण्डितः पटुचऋपुटकोटिकुट्टनैः // 4 // अन्वयः-पण्डितः स पटु...कुट्टनैः गरुन ग्रहान् , क्वचित् सतः ( अत एव ) कटु दशतः कीटान् तनुकण्डं नुनुदे। टीका-पण्डितः विज्ञः स हंसः पटु कोटनिवारणे निपुणं ( कर्मधा० ) यत् चच्चाः पुटम् (10 तत्पु० ) तस्य या कोटिः अग्रम् (10 तत्पु० ) तेन कुट्टनै घट्टनैः आचातैरिति यावत् (त. तत्पु०) गरुता पक्षाणां यत् वनम् वृन्दम् (10 तत्पु० ) एव दुर्गम् दुर्गम-स्थानं ( कर्मधा० ) तस्मिन् दुर्ग्रहान् ग्रहीतुमशक्यान् ( स० तत्स० ) अत एव कटु तीक्ष्यं यथा स्यात्तया दशतः खादतः, क्वचित् शरीरस्य अनिर्धारित-देशे सतः वर्तमानान् कोटान् मशकान् तन्वी स्तोका कण्डुः खर्जुः ( कर्मधा०) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० बी० ) नुनुदे अपाकरोत् निस्सारितवानिति यावत् // 4 // - व्याकरण-पण्डितः पण्डा ज्ञानं साताऽस्येति पण्डा+तच् / कुटनैः /कुट्ट ( छेदने)+ ल्युट् ( भावे ) / दुग्रहान् दुः दुःखेन कठिनतयेत्यर्थः ग्रहीतुं शक्यान् इति दुः/ग्रह् +खल् / दशतः दश +शत (द्वि० व० ) / सतः अस्+शत ( दि० व०)। नुनुदे/नु+लिट् / - अनुवाद-समझदार उस ( हंस ) ने ( पिस्तुओं को हटाने में ) निपुण ( अपनो) चोंच की नोक के आवातों से पंख-समूह रूपी दुर्ग में मुश्किल से पकड़ में आने वाले, जोर से काट रहे, कहीं (शरीर के भागों में ) स्थित पिस्तुओं को थोड़ा-सा खुजलाकर निकाल बाहर कर दिया // 4 // टिप्पणी-पक्षि-स्वभाव का यथावत् वर्णन होने से स्वभावोक्ति तो पूर्ववत् चली ही आ रही है / विद्याधर दुर्ग ( दुर्गम स्थान ) पर दुर्ग ( किले ) का आरोप करके श्लेष भी मानते हैं। इस तरह यह श्लिष्ट रूपक होगा। मल्लिनाथ पंखों पर वन-दुर्ग ( वन स्थित किले ) का भारोप करते हैं। शब्दालंकारों में 'शतः' 'सतः' में यमक ( 'यमकादौ भवेदैक्यं शसोर्बबोलेरोस्तथा' ), 'कटु' 'कीटान्' 'दुर्ग' 'दुर्घ' 'पटु 'पुट', और 'कोटि' 'कुटे' में छेकानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है।

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